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प्रकरण - कुमारपाल
[ १९ जंसलमेर के इतिहास में लिखा है कि वहाँ के राजा लांजा विजयराय को सिद्धराज की पुत्री ब्याहो थी । यद्यपि इस घटना के विषय में निश्चित समय का उल्लेख नहीं है परन्तु हम इसका अनुमान लगा सकते हैं । लाँजा का पितामह दुसाज [ दूसाजी | संवत् ११०० में लोद्रवा' की गद्दी पर बैठा था और विजयराय के पौत्र जेसल ने संवत् १२१२ में जैसलमेर बसाया था। इस प्रकार इनके बीच का समय विजयराय के राज्यकाल के रूप में ग्रहण किया जा सकता है और इससे समय-निर्धारण का एक और भी पुष्ट प्रमाण हमें मिल जाता है।
भाटी राजपूतों के इतिहास में लिखा है कि इस राजकुमार की माता ने सिद्धराय की पुत्री से उसका विवाह होने के कारण 'उत्तर के म्लेच्छों के विरुद्ध पाटण के द्वार' की रक्षा करने का आदेश अपने पुत्र को दिया था। ऐसी कितनी ही और भी समसामयिक घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है परन्तु केवल उपरिवर्णित वृत्तान्त ही 'चरित्र' में उल्लिखित वंशावलियों को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं।
कुमारपाल-ने, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, संवत् ११८६ (११३३ ई०) में राज्य करना प्रारम्भ किया। उसने सबसे पहला काम यह किया कि जिन लोगों ने उसे विपत्तिकाल में आश्रय दिया था, उन सबको एकत्रित किया। हेमाचार्य को भड़ौंच के एकान्तवास में से दरबार में बुलाया गया और गुरुपदवी प्रदान करके उनका सम्मान किया गया; जैन युवक, जो बौद्ध दर्शन और भाषा की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, अब राजा के मुख्य नागरिक मन्त्री का कार्य करने लगे। कृष्णदेव को, जिसने राजा को पलायनकाल में सबसे पहले शरण दी थी, प्रधान सैनिक - परामर्शदाता अमात्य नियुक्त किया गया और सैनिक सभा के बहत्तर सामन्तों का नियन्त्रण भी उसके अधिकार में
' यह नगर अब बिलकुल खण्डहरों की दशा में पड़ा है। पहले यह जैसलमेर के 'वनराजों'
(Desert Princes) की राजधानी था। अपने अनुसंधानों के सम्बन्ध में मुझे इसका
वर्णन करना है। २ वास्तव में, सिद्धराज की पत्नी ने अपने जामाता को यह आदेश दिया था। तभी विवाह
में समागत राजाओं ने विजयराय को 'उत्तर भड़ किवाड़ भाटी' की उपाधि से विभूषित किया था।-जैसलमेर का इतिहास; हरिगोविन्द व्यास; पृ. ४० । 3 मेरे द्वारा संग्रहीत बहुत से प्राचीन जैन लिपि में लिखे हुए शिलालेखों में एक सिद्धराज
का लेख भी है जो अन्य कितने ही लेखों की तरह अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
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