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प्रकरण - २२; जाडेवों द्वारा कच्छ में राज्य संस्थापन
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प्रकट की । इतिहास अर्थात् वंशावली के शब्दों में- 'जब सारसोत बापू ने अपना काम छोड़ दिया तो एक प्रौदीच्य ब्राह्मण उसके स्थान पर नियुक्त हुना और उसने आज्ञा का पालन किया; उसने इन सातों लड़कियों को जला दिया और उसके वंशज तभी से जाड़ेचों के राजगुरु बने हुए हैं ।' अच्छा होता, यदि यह सम्पूर्ण जाति मुसलमान बनी रहती और हिन्दुओं की सीमा में पुनः स्थान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न न करती; अब ये न हिन्दू रहे न मुसलमान । ऐसी दशा में, यदि भारत में किसी अन्य वर्ग अथवा जाति की अपेक्षा (मलाबार के हेलोतों (Helots ) के अतिरिक्त ) इन लोगों को ईसाई मत में परिवर्तित करने के प्रयोग किए जावें तो संभवतः वे अधिक सफल सिद्ध होंगे और उनके रहन-सहन में घुसे हुए इस तरह के जंगलीपन के अवशेषों से उद्धार करने के ऐसे किसी भी प्रयत्न से मानवता को प्रसन्नता ही प्राप्त होगी ।
लाखा का उत्तराधिकारी रायधन हुआ और उसको ही कच्छ में जाड़ेचा रियासत का संस्थापक माना जा सकता है क्योंकि यद्यपि राजघातकों मे कुछ नये संस्थान कायम कर लिए थे, परन्तु जाम ऊनड़ के पुत्रों ने उनको दबा कर क्षीण कर दिया था तथा अपने पिता के घात का बदला लेते हुए उन हत्यारों को 'कायरा' से भी खदेड़ कर बाहर निकाल दिया था । इसीलिए यह माना जाता है। कि कायर - मुनई की सन्तानें मेर और मोणों की नीची जातियों में मिल गईं तथा कालान्तर में उन्हीं लोगों में खो गईं। कन्थर-कोट (Kunter kote) के विजेता मोर के वंशजों ने अलबत्त: इस पर पाँच पीढ़ी तक अधिकार बनाए रखा परन्तु, बाद में सुप्रसिद्ध लाखा फूलानी के साथ, जिसका उल्लेख तत्कालीन प्रत्येक जाति के इतिहास में मिलता है, यह शाखा भी नष्ट हो गई । मोर के सरज, उसके फूल और फूल के फूलानी उपनामधारी लाखा हुआ, जो सतलज से लेकर समुद्र तट तक अपने लूट - अभियानों के लिए उस समय प्रसिद्ध था जब राठौड़ों ने मरुस्थली अथवा भारतीय रेगिस्तान में सर्वप्रथम राज्य स्थापित किया था । मारवाड़ के इतिहास में लिखा है कि वह सीहाजी द्वारा उसके भाई सीताराम के वध के बदले में मारा गया था। राठौड़ इतिहास के अनुसार यह घटना भारत पर शाहबुद्दीन द्वारा १९६३ ई० में मुसलिम - विजय के तुरन्त बाद की है; और क्योंकि रायघन जाम ऊनड़ की आठवीं पीढी में हुआ था, जिसका समय जेठवा - इतिहास के समसामयिक आधार पर १०५३ ई० आता है, इसलिए कच्छ में जानों द्वारा अन्तिम विजय और राज्य संस्थापन के समय को हम सरलता से उत्तरी भारत में मुसलिम - विजय का समकालीन अर्थात् ११९३ ई० मान सकते हैं ।
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