Book Title: Paschimi Bharat ki Yatra
Author(s): James Taud, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Puratan Granthmala

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Page 672
________________ परिशिष्ट [५४१ उत्तराधिकारी उसके बड़े भाई का पुत्र वस्तुपाल हुआ; फिर श्री ललितराज ने राज्य किया, जो संवत् १२७७ (१२२१ ई०) में महान् व्यापारी हया । इस राजा ने शत्रुञ्जय, गिरिनार और अन्य पवित्र स्थानों की यात्रा की और उत्सव सम्पन्न किए; उसने महान देवताओं के मन्दिरों का भी निर्माण कराया। महाराजा ललित चालुक्य-वंश का था। माता अम्बा को स्तुति सं० २-भय और संशय का नाश करने वाली, भक्तों के सभी मनोरथ पूर्ण करने वाली श्रीमाता अम्बिका ही वह शक्ति है, जो मनुष्यों की प्रार्थना सुनकर इच्छाएं पूरी करती है ! हम उसको स्तुति करते हैं, उसको जय हो ! सं० ३-संवत् १३३६ (१२८३ ई०) ज्येष्ठ शुद १०मी वृहस्पतिवार को रैवताचल पर पुराने और ध्वस्त मन्दिरों को उनके स्थान से हटा कर नया निर्माण कराया गया। सं० ४-संवत् १३३३ (१२७७ ई०) में वैशाख ४थ, सोमवार को श्री जनप्रबोध [जिन प्रबोध] प्राचार्य, उज्जैन के श्रीपूज्य (High Priest) के आदेश से श्रावक गणेश, उसके पुत्र वीरपाल श्रीमालज्ञातीय साह हीरा लक्खा ने स्वताचल पर श्रीनेमनाथ को मन्दिर में प्रतिष्ठित करने के लिए २०० मोहरों का विसर्जन किया और देव पूजा के निमित्त २००० मोहरें प्रतिदिन वितीर्ण की। सं०५-श्रो पण्डित देवसेन सुंग की आज्ञा से संवत् १२१५ (११५९ ई०) चैत्र शूद मी रविवार को देवताओं के प्राचीन मन्दिरों को हटा कर नया निर्माण कराया गया। सं० ६-संवत्"सरसिन्धु रण(?) (Sindhiran) में शालिवाहन नामक राजा राज्यकरता था; उसका पुत्र सुवर ठाकुर था; तथा पति शालिवाहन उसका पुत्र रुच्यपर्व। इन राजकुमारों ने बड़े-बड़े यज्ञ किए और भीमकुण्ड-मामक सरोवर का निर्माण कराया । वस्तुपाल और तेजपाल ने श्रीअम्बिका की मूर्ति गिरिनार पर प्रतिष्ठित कराई और 'रस-कुम्पिका'नामक कुए का निर्माण कराया। सं० ७-संवत् १२३४ (११७८ ई०) में पोष वद ६० वृहस्पतिवार को शाह वस्तुपाल तेजपाल ने गिरिनार पर एक विशाल मन्दिर बनवाया जिसमें श्रीमलीनाथ को पधराया । उस समय कुमारपाल' राजा पाटन में राज्य करता था जो अन्य राजाओं का शिरोमणि था। समाप्त जे. ल. कॉग्स एण्ड सन्स; ७५ प्रेट क्वीन स्ट्रीट लिंकन इन फोल्ड द्वारा मुद्रित १ इससे ज्ञात होगा कि यहाँ कुमारपाल के राज्यकाल से पूर्व तिथि अङ्कित की गई है क्योंकि उसका राज्यारोहण संवत् ११८६ निर्णीत हो चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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