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पश्चिमी भारत की यात्रा अनेक राजाशाही अन्तविभागों का पता चलता है, जिनमें अपने-अपने ढंग के सिक्के, तौल और माप प्रचलित थे और जिनमें परिवर्तन करने का अधिकार राजत्व का एक लक्षण अथवा विशेषाधिकार माना जाता था।
इस प्रदेश की भूमि पिछले प्रदेश के समान ही है; भूमि का तल पानी के बहाव के कारण अनावृत हो गया है। हमने देखा कि इसमें वही झरझरी और बड़खनी (सहज ही में टूट जाने वाली) बजरी है जो बीच की उन पहाड़ियों की तलहटी में से बह कर समुद्र में आती है, जो प्रायद्वीप को बीचों-बीच से विभक्त करती है । खेतीबाड़ी केवल गाँवों के आस-पास ही होती है जहाँ गेहूँ और जो की ताजा फसलों तथा कहीं-कहीं सघन गन्ने की बढ़िया पाटियों क्षेत्रों की कमी नहीं है। हमारी स्थिति में थोड़ा-सा बदत होते ही पवित्र गिरनार की नई चोटियां दिखाई देने लगी और चोरवाड़ से सीधा फासला उ० २६° पू० में पचीस कोस अथवा पैंतालीस मील माप में पढ़ा गया।
पट्टण से लगभग चार मील की दूरी पर अहीरों के गांव ढाब (Dhab) में दो मन्दिरों के खण्डहर हैं, जिनमें से एक सूर्य का देवालय था। यहाँ एक सुन्दर जलाशय अथवा बावड़ी भी है जिसमें, मुझे बताया गया कि, एक शिलालेख भी है, परन्तु दुर्भाग्य से वह पानी की सतह से नीचे था। हमने कितनी ही नदियाँ पार की और सुना कि इनमें से एक के समुद्र-संगम-स्थल पर चोरवाड़-माता का मन्दिर है तथा वहीं हनुमान की विशाल मूर्ति भी है । 'चौरवाड़' का अर्थ है'चौरों का नगर'- यह नाम सम्माननीय नहीं है, क्योंकि पुराने समय में तट का प्रत्येक बन्दरगाह समुद्री लुटेरों का अड्डा बना हुआ था । आजकल के निवासियों की जातियाँ दूसरे ही प्रकार का धन्धा करती हैं । वे लोग मुख्यतः रैबारी अथवा अहीर हैं, जो पशुपालक हैं । इसी प्रकार यहाँ कोरिया और रायजादा जाति के लोग भी थे; रायजादा प्राचीन चूड़ासमा शाखा के हैं, जो कभी इस भूमि के राय अथवा स्वामी थे। चोरवाड़ के ठाकुर जेठवा राजपूत हैं; यहाँ के सभी लोग भले और देखने में अच्छे हैं । नगर में तो कोई विशेष उल्लेखनीय बात देखने में नहीं पाई, परन्तु मुझे एक रोचक शिलालेख (परि० ८) मिल गया जो कोरॉसी (Koraussi) के प्राचीन सूर्य-मन्दिर से लाया गया था। इसको मैंने अपनी दाहिनी ओर थोड़ी दूर पर देखा । यह शिलालेख इसमें उत्कीर्ण प्रशस्ति की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है वरन् इसमें (मेवाड़ के राणाओं की) गेहलोतशाखा का उल्लेख भी मिलता है कि उन्होंने 'सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त की थी।' इससे अबुल फजल के उस कथन का प्रमाण मिल जात है, जो अन्यथा अप्र. माणित समझा जाता था कि अकबर के समय में 'सोरठ (सौराष्ट्र का संक्षिप्त
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