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पश्चिमी भारत की यात्रा
है । फिर वह बच्चों की रक्षिका शीतला माता का, जिससे सभी वनवासी भयभीत रहते हैं, स्तुतिपरक भजन प्रारम्भ करता है और उसकी पत्नी उसके स्वर में स्वर मिलाती है तथा मञ्जीरे से ताल देती रहती है । प्रत्येक गांव में एक बड़ा ढोल रखा रहता है जिसको ऐसे अवसरों पर विशेष रीति से बजा कर पड़ोसियों को सूचना दी जाती है और वे नवागन्तुक के माता-पिता को यथाशक्ति उपहार भेंट करते हैं । मृत्यु के अवसर पर एक ही प्रकार के शोकसूचक मायूस आघातों से ढोल पीट कर पड़ोसियों को बुलाया जाता है और उनमें से हर एक अपने हाथ में एक-एक सेर अनाज लेकर आता है । मृतक के दरवाज़े के पास ही जोगी बैठता है, घोड़े की मूर्ति और पानी से भरा मिट्टी का घड़ा उसके पास रक्खे होते हैं । प्रत्येक सम्बन्धी अथवा श्रागन्तुक वहाँ पहुँच कर चुल्लू में थोड़ा सा पानी लेता है और मृतक का नाम लेकर उस मूर्ति पर छिड़क देता है और अनाज की मात्रा जोगी को भेंट कर देता है। घोड़े की उस मूर्ति का इतना आदर क्यों होता है, यह मेरे समझ में नहीं आया; शायद यह सूर्य का चिह्न है, जिसको सभी जातियाँ पूजती हैं - परन्तु इससे अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता ।
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मैंने अन्यत्र वर्णन किया है कि राजपूत तो विजेता मात्र हैं और भारतवर्ष के गहन प्रदेशों पर जन्म सिद्ध अधिकार तो उन ग्रादिवासी जातियों का है जिनकी महानता के चिह्न उनकी प्राचीन परकोटों से घिरी हुई बस्तियों में प्रचुरता से पाये जाते हैं । अभी कोई एक शताब्दी पहले ही इन भोमियों ( भूमिपतियों) के एक स्वामी के पास धनुर्धारियों के अतिरिक्त आठ सौ घोड़ों की फौज़ थी । इनके प्रमुख योद्धा सावन्त या सामन्त कहलाते थे और विशेषतासूचक छोटी पीतल की कमरपेटी बांधते थे । वे कवच धारण किये बिना कभी युद्ध में नहीं जाते थे। पीछे फिर कर देखना इनमें महान् अपराध समझा जाता था जिसका परिणाम सामन्तपद की हानि होता था । फिर वह पद उसके किसी निकट सम्बन्धी को दिया जाता था और निकट सम्बन्धी के न होने पर किसी योग्य व्यक्ति को सामन्त चुन लिया जाता था । उस दीर्घकालीन अराजकता के समय में भी, जिसका इन प्रदेशों पर कुप्रभाव पड़ा और जिसने प्रभु भक्ति एवं प्रेम के उन बंधनों को छिन्न-भिन्न कर डाला कि जिनसे इन तितर-बितर बस्तियों का समाज बँधा हुआ था, भील अपने रक्त के प्रति वफ़ा
१ नवजात शिशु |
२ एनल्स आफ राजस्थान, भा. २, पृ. २ ।
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