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पश्चिमी भारत की यात्रा हो गईं; और क्या कहूँ, अगर-धूप का धुआँ, बुरी तरह घृत से भरे हुए दीपकों की रोशनी, दूषित वातावरण और जैनों के केसर [रियानाथ ] की भयावनी प्राकर्षणहीन प्राकृति - इन सब की उपस्थिति में मुझे लगा मानों में निर्दयी न्यायाधीश [ यमराज ] के समक्ष यमलोक में ही खड़ा हूँ। जब मेरा कुतूहल शान्त हुआ तो मैं शुद्ध वायु और विशुद्ध कला के क्षेत्र में निकल आया जहाँ पर मेरे मन की स्वस्थता फिर लौट आई; परन्तु संगमर्मर की फर्श में प्रतिबिम्बित होकर चकाचौंध पैदा करने वाली सूर्य की सीधी किरणों की दुखद अनुभूति के कारण मुझे रविश में जा कर शरण लेनी पड़ी। __ वृषभदेव की दाहिनी ओर चौक के दक्षिण-पश्चिमी कोने में एक बड़े और ऊंचे कक्ष में भवानी को प्रतिष्ठित कर के अणहिलवाड़ा के साहूकार ने अपना नाम अमर करने के साथ-साथ देवी के प्रति अपनी श्रद्धा भी प्रकट की है; पास ही के कक्ष में परम प्रसिद्ध बाईसवें जिनेश्वर नेमिनाथ, जो अरिष्टनेमि अथवा श्याम भी कहलाते हैं, विराजमान हैं । यह मूर्ति, जो बहुत विशाल और तीर्थकर के नाम के अनुरूप वर्ण वाली है, एक ही संगमर्मर के पत्थर की बनी हुई है। जो डूंगरपुर की खान से प्राप्त किया गया था। चौक से चल कर हम एक चौकोर कक्ष में जाते हैं जिसको नीची छत कितने ही खम्भों पर टिकी हुई है। इस कक्ष के द्वार पर ही वृषभदेव की ओर मुह किए हुए मन्दिर के निर्माता की प्रश्वारोही मूर्ति खड़ी है जो पुरुषाकृति से बड़ी है । उसके पीछे उसका भतीजा बैठा हुआ है और उस पर एक छत्र लगा हुआ है, जो उसके वैभव का प्रतीक है । वृद्ध साहूकार की वेशभूषा कुछ भद्दी सी है, उसके शिर पर पश्चिम-भारतीय अथवा अमरीकी भारतीय सरदार के मुकुट जैसी कोई चीज है; उसका भतीजा सेनापति के डण्डे जैसी कोई चीज उसको सौंप रहा है। सम्भवतः वह इस विशाल भवन की लागत के हिसाब का (गुलियाया हुआ) खर्रा हो। वणिकाज के चारों ओर दस गजारोही मूर्तियां और हैं जिनमें से प्रत्येक (सवार और हाथी की) मूर्ति को उँचाई छ: फीट है; ये सब मूर्तियां संगमर्मर की हैं और साधारणं बनी हुई है। यहाँ के लोगों का कहना है कि ये उन बारह यूरोपीय जातियों के बड़े राजाओं की मूर्तियाँ हैं जिनको विमलशाह ने स्वर्ण के बल पर यह शपथ दिलाई थी कि उसके हाथों हुए इस कार्य [मन्दिर] और यहाँ के देवता का वे सदा सम्मान करते रहेंगे । यह कहानी, जो खास कर यूरोपियों के झूठे गर्व की प्रशंसा में नहीं गढ़ी गई है, कितनी ही शताब्दियों से चली आ रही है और स्थानीय अन्य जनश्रुतियों को भांति सच्चे श्रद्धालुओं का पूर्ण विश्वास प्राप्त किए हुए है, जिनकी (अन्ध) श्रद्धा
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