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प्रकरण - ३; भारत के आदिवासी
है उस ब्रूस' (Bruce) ने भी स्वीकार किया है कि नील (Nile) नदी के उद्गम के समीप रहने वाले लोग अग्नि के प्रयोगों से अनभिज्ञ थे अथवा बर्क (Burke) के शब्दों में यों कहें कि उन लोगों में बुद्धि का इतना विकास नहीं हना था कि वे रँधे मांस की विशेषता को पहचान सकें । किन्तु भारत के आदिवासी भीलों, कोलियों और गौंडों ने तो भोजन पकाने की कला बहुत पहले ही सीख ली थी; उनकी आग जलाने की पेटी और चकमक पत्थर प्रत्येक बाँस की कुञ्ज में मौजूद थे। उन्हें केवल इस बात से चौकस रहना पड़ता था कि कहीं तेज हवा में इन पहाड़ियों की मूल वनस्पति (बाँसों) की रगड़ से इस विनाशक तत्व की आवश्यकता से अधिक मात्रा में उत्पत्ति न हो जाय क्योंकि उनके जङ्गली घर कई बार उनके देखते-देखते जल कर भस्म हो चुके थे। मैंने एक जलते हुए, चटखते हुए और भभकते हुए बाँसों के जङ्गल का, जो अपने आप जल उठा था विकराल दृश्य देखा है, यद्यपि कोई भी कठिन काष्ठ रगड़ने पर आग पैदा कर सकता है परन्तु बाँस के ऊपर की सफेद पत्थर की सी परत' से तो तत्काल अग्नि उत्पन्न करने का एक यंत्र बन जाता है। अग्नि, जिसे हिन्दू मात्र, विद्वान् ब्राह्मण, योद्धा राजपूत एवं अर्द्ध-सभ्य वनपुत्र सभी देवता मान कर पूजते हैं ।
' James Bruce स्कॉटलैण्ड का निवासी था। कुछ वर्षों तक अन्वेषण के लिए देशाटन
करने के बाद वह प्राच्य भाषाओं के अध्ययन में लग गया । बर्बर जातियों के प्राचीन अवशेषों का अन्वेषण एवं अध्ययन करने हेतु नियुक्त ब्रिटिश कमीशन का सलाहकार हो कर वह अलजीयर्स (Algiers) गया। इसी प्रसंग में वह अलजोरिया, टयू निस, ट्रिपोली, क्रीट और सीरिया में घूमा । सन् १७६६ ई० में वह अलेक्जैण्डिया से नील नदी का निकास ढूंढने को निकला और Blue Nile को ही मुख्य नदी समझ कर उसके उद्गम तक जा पहुँचा । इंगलैण्ड लौटने पर उसके अनुभव अविश्वसनीय सिद्ध हुए अतः वह स्कॉटलैण्ड में अपनी जागीर को लौट गया और १७६० ई० तक अपनी पुस्तक "Travels to Discover the Sources of the Nile" नहीं छपवाई। बाद में यह पुस्तक पांच भागों में लन्दन से प्रकाशित हुई। पांचवें भाग में उसके भौतिक इतिहाससम्बन्धी अनुसंधानों का वर्णन है ।-N.S.E., p. 199. २ इंगलैण्ड का सुप्रसिद्ध विधान-सभायी Edmund Burke जिसने भारत के गवर्नर वारेन
हेस्टिगा के अपराधों की पार्लियामेंट में खुल कर बालोचना की थी। 3 बांस के रस का द्रव जिसको तवाशिर [तवाशीर, वंशलोचन] कहते हैं और जिसे हिन्दू
चिकित्सक औषधि के रूप में काम में लेते हैं-यह शुद्ध चकमक है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह रस बांस में से अपने प्राप निकल कर ऊपर जम जाता है और फिर कठिन होकर पत्थर जैसा दृढ़ बन जाता है।
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