Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 14
________________ शास्त्र एवं काव्य जगत् की दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण इस ग्रन्थ में कथानक संक्षिप्त तथा सुरुचिपूर्ण है तथा कवि ने सन्धान काव्य में जिन काव्योचित गुणों को आवश्यक माना है उनका प्रयोग अवश्य ही किया है। द्विसन्धान महाकाव्य जहां रसों की नवीन सुन्दर योजना, शब्दालंकार, अर्थालंकार, उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, परिसंख्या, वक्रोक्ति, आक्षेप, अतिशयोक्ति, निश्चय, समुच्चालंकार के लिए प्रसिद्धि को प्राप्त है वहीं वैश्वदेवी, प्रहर्षिणी, अपहवक्त्र जैसे विशिष्ट एवं वैतालीय, जलधरमाला, वसंततलिका आदि 31 प्रकार के इन्दों से परिपूरित तथा व्याकरण, राजनीति, सामुद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणित तथा ज्योतिष विषयक चर्चाओं से भी परिपूर्ण है। 'राघव - पाण्डवीय' महाकाव्य पर कुछ टीकाएं उपलब्ध हैं। प्रथम 'पदकौमुदी' टीका के कर्ता विनयचन्दपण्डित के प्रशिष्य तथा देवनन्दि के शिष्य कवि नेमिचन्द हैं। दूसरी 'राघव - पाण्डवीय प्रकाशिका' टीका के कर्ता रामचन्द के पुत्र कवि देववाह या देवर हैं तथा बदरीकृत संस्कृत टीका भी उपलब्ध है। कालनिर्धारण - स्व. पं. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य, बौद्धदर्शन प्राध्या. संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी के अनुसार कवि के स्थिति काल सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। इनका समय डॉ. के. बी. पाठक ने 1123 से 1140 ईसवी के मध्य माना है। डॉ. ए. बी. कीथ ने 'संस्कृत साहित्य के इतिहास' में धनंजय कवि का समय पाठक द्वारा अभिमत ही स्वीकार किया है । [ देखें पृ. 173]। और इसी आधार से श्री रामावतार शर्मा ने 'कल्पद्रुमकोश' की प्रस्तावना [पृ.32] पर कवि का समय 12 वीं सदी लिख दिया है। परन्तु धनंजय का उक्त काल निर्धारण उचित नहीं है |% स्व. पं. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य के अनुसार +, चूंकि इनके द्विसन्धान काव्य का उल्लेख धाराधीश भोजराज के समकालीन आचार्य प्रभाचन्द्र [ई. 11 वीं सदी ] ने अपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' [पृ. 4021 में किया है, इसके अतिरिक्त वादिराजसूरि [सन् 1025] ने अपने 'पार्श्वनाथचरित' में कवि धनंजय और द्विसन्धान महाकाव्य दोनों का उल्लेख किया है, अतएव धनंजय इन दोनों से पूर्ववर्ती होने के कारण 11 वीं शताब्दी के विद्वान् सिद्ध नहीं होते।* जल्हण [12 वीं सदी ] ने राजशेखर के नाम से अपनी 'सूक्तिमुक्तावली' में जो पद्य उद्धृत किया है, वह प्रतिहारराजा महेन्द्रपालदेव [ वि. सं. 960 के लगभग ] के उपाध्याय एवं 'काव्यमीमांसाकार' राजशेखर का है 10 इनका उल्लेख सोमदेवसूरि ने [ई. 960] के 'यशस्तिलकचम्पू' में भी पाया जाता है। अतः राजशेखर जो 'प्रबन्धकोश' के कर्ता राजशेखर से भिन्न हैं, का समय 10 वीं सदी सुनिश्चित है। राजशेखर के द्वारा प्रशंसित होने के कारण धनंजय का समय 10 वीं सदी के बाद का नहीं हो सकता। डॉ. हीरालाल जैन ने 'षट्खण्डागम' (प्रथमभाग) की प्रस्तावना (पृ.62 ) में यह सूचित किया है कि आचार्य जिनसेन के गुरु वीरसेन स्वामी ने पट्खण्डागम की 'धवलाटीका' में 'अनेकार्थ नाममाला' का 39 वाँ पद्य इति शब्द की व्याख्या में उद्धृत किया गया है|# धवला टीका विक्रम सं. 805-873 (ई. सन् 748 - 816) में समाप्त हुई। अतः धनंजय कवि का समय 8 वीं सदी का उत्तरार्ध या नवीं सदी के पूर्वार्द्ध के बाद का नहीं हो सकता IS

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