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बोल दसवाँ
कर्म आठ
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१. ज्ञानावरण कर्म २. दर्शनावरण कर्म ३. वेदनीय कर्म ४. मोहनीय कर्म ५. आयुष् कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म
५. अन्तराय कर्म
व्याख्या मिथ्यात्व, कषाय और योग आदि कारणों से जीव के द्वारा जो कार्मण पुद्गलों का आत्मा के साथ बन्ध किया जाता है, वह कर्म है । जीव और कर्म का यह सम्बन्ध ठीक वैसा ही होता है, जैसा दूध और पानी का अथवा अग्नि और लोह पिण्ड का । आत्म-सम्बद्ध, पुद्गल द्रव्य को कर्म कहते हैं ।
यद्यपि जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि काल से है, परन्तु प्रत्येक का यह सम्बन्ध अनन्त काल तक रहेगा, सो बात नहीं है । खान में जो सुवर्ण है, उसका मिट्टी के साथ अनादि सम्बन्ध होने पर भी विशेष शोध-क्रिया के द्वारा जब उससे मिट्टी हटा देते हैं, तब वह शुद्ध सुवर्ण हो जाता है । यही सिद्धान्त कर्म और आत्मा पर भी लागू पड़ता है। कर्म से सहित जीव अशुद्ध
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