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बाह्यतप यदि आभ्यन्तर तप के विकास में हेतु बनता है तो वह परम्परा से कर्म-निर्जरा का हेतु है, अन्यथा नहीं । आभ्यन्तर तप के बिना अकेला बाह्य तप तो कर्म बन्धन करता है ।
बन्ध तत्त्व के चार भेद १. प्रकृति बन्ध
२. स्थिति बन्ध ३. अनुभाग बन्ध ४. प्रदेश बन्ध
व्याख्या कर्म वर्गणा और आत्मा का अन्योऽन्यानुप्रदेश रूप जो परस्पर सम्बन्ध है, वह बन्ध कहलाता है । कषाय और योग से जीव कर्म-पुद्गलों का बन्ध करता है । नीर और क्षीर की तरह अथवा अग्नि और लोह पिण्ड की तरह कर्म-पुद्गल और आत्म-प्रदेशों का जो एकीभाव है, एक क्षेत्रावग्राही रूप सम्बन्ध है, उसे बन्ध कहते हैं । जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर धूल में लेटता है, तो धूल उसके शरीर से चिपक जाती है । इसी प्रकार कषाय और योग से आत्मा-प्रदेश में जब कम्पन होता है, तब आत्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है । बन्ध तत्त्व के चार भेद हैं । प्रत्येक कर्म जब बँधता है, तो उसकी चार अवस्थाएँ होती हैं । प्रकृति बन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलों
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