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में ज्ञानावरणादि रूप भिन्न-भिन्न स्वभाव; अर्थात् शक्ति का पैदा होना ।
स्थिति बन्ध----जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गल में अमुक काल तक अपने स्वभाव का परित्याग न करते हुए जीव के साथ लगे रहने की काल मर्यादा । ___अनुभाव बन्ध—जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गल में तीव्र एवं मन्द फल देने की शक्ति । इसको अनुभाव बन्ध और रसबन्ध भी कहते हैं ।
प्रदेश बन्ध—जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गल के परमाणुओं का कम या अधिक होना; अर्थात् जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्म-स्कन्ध का सम्बन्ध होना ।
सराग दशा में जीवों को चारों ही प्रकार का बन्ध होता है ।
वीतराग दशा में जब तक देह रहता है, तब तक प्रकृति और प्रदेश का ही बन्ध होता है । जब आत्मा मुक्त हो जाता है या चौदहवें अयोगी गुणस्थान में होता है, तब कोई भी बन्ध नहीं होता । इन चार बन्धों में न प्रकृति बन्ध तथा प्रदेश बन्ध योग से होते हैं और न स्थिति बन्ध तथा अनुभाव बन्ध कषाय से होते हैं ।
कर्म-बन्ध के पाँच हेतु हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । परन्तु मुख्य दो ही हैं—कषाय और योग ।
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