Book Title: Pacchis Bol
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 77
________________ बोल अठारहवाँ दृष्टि तीन १. सम्यग् दृष्टि २. मिथ्या दृष्टि ३. मिश्र दृष्टि व्याख्या यहाँ पर दृष्टि का अर्थ है—दर्शन । संसार में जितने भी जीव हैं, उनमें इन दृष्टियों में से एक-न-एक दृष्टि अवश्य मिलती है । ये दृष्टियाँ समुच्चय रूप में चारों गतियों के जीवों में उपलब्ध होती हैं। सम्यग् दृष्टि-मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय से, उपशम अथवा क्षयोपशम से, आत्मा में जो एक आत्मानुलक्षी शुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है, उसे सम्यग् दृष्टि कहते हैं । मिथ्या दृष्टि—मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव में जब अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और अगुरु में गुरुबुद्धि हो जाती है, तब उस दृष्टि को मिथ्या दृष्टि कहते हैं । निश्चय दृष्टि से आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्रतिपत्ति न होना ही मिथ्या दृष्टि है । मिश्र दृष्टि—मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा में जो सत्यासत्य मिश्रित दोलायमान स्थिति पैदा होती है, उसे मिश्र दृष्टि कहते हैं । इस दृष्टि में जीव न एकान्त सत्योन्मुख होता है और न एकान्त असत्योन्मुख । किन्तु सत्य और असत्य से विलक्षण एक मिश्रित-सी अवस्था होती है । ( ७२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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