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तत्त्व यहाँ पर तत्त्व का अर्थ जीव, अजीव आदि तत्त्व समझना चाहिए ।
देव-कर्म रूप शत्रु के विजेता अष्टादश दोष शून्य, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग अरिहंत भगवान् देव हैं ।
गुरु—कनक और कान्ता के त्यागी, पंच महाव्रत के पालने वाले, पंच समिति और तीन गुप्ति के धारक सन्त गुरु हैं ।
धर्म–सर्वज्ञभाषित, दयामय, विनय-मूलक, कर्म का नाश करने वाला और मोक्ष की ओर ले जाने वाला तत्त्व धर्म है । ___ यह वर्णन व्यवहार दृष्टि से किया गया है । निश्चय दृष्टि से तो आत्मा स्वयं ही देव है, स्वयं ही गुरु है और स्वयं ही धर्म है ।
प्रस्तुत बोल में दश प्रकार के मिथ्यात्व का वर्णन किया गया है । जीव को जीव और अजीव को अजीव समझना सम्यक्त्व है । परन्तु जीव को अजीव समझना मिथ्यात्व है । इसी प्रकार अजीव को जीव समझना भी मिथ्यात्व है । यथार्थ-दृष्टि सम्यक्त्व है और विपरीत-दृष्टि मिथ्यात्व है । सम्यक्त्व मोक्ष-हेतु है और मिथ्यात्व संसार हेतु ।
इसी प्रकार धर्म और अधर्म, साधु और असाधु, संसार और मोक्ष तथा मुक्त और अमुक्त के विषय में भी समझ लें । यदि इनमें यथार्थ दृष्टि है, तो वह सम्यक्त्व है और यदि इनमें विपरीत दृष्टि है, तो वह मिथ्यात्व है ।
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