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के दर्शन करने में रुकावट डालता है, वैसे ही यह कर्म भी पदार्थों का सामान्य बोध करने में रुकावट डालता
· वेदनीय कर्म—जो अनुकूल और प्रतिकूल विषयों से उत्पन्न सुख और दुःख रूप में वेदन; अर्थात् अनुभव किया जाय । यह कर्म मधुलिप्त तलवार की धार को चाटने के समान है । चाटते समय क्षण भर को सुख, परन्तु बाद में दुःख होता है । वेदनीय कर्म की भी यही स्थिति है । वेदनीय कर्म का दुःख तो दुःख रूप है ही, किन्तु सुख भी अन्ततः दुःख रूप ही है ।
मोहनीय कर्म-जो कर्म आत्मा को मोहित करता है भले-बुरे के विवेक से शून्य बना देता है, जो सदाचार से विमुख करता है, वह कर्म मोहनीय कर्म है । यह कर्म अन्य कर्मों से प्रबल कर्म है । यह मदिरा के सदृश्य होता है । जैसे मदिरा पीने बाला विवेक-विकल हो जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के प्रभाव से जीव विवेक शून्य हो जाता है । इस कर्म के दो रूप हैं - दर्शनमोह
और चारित्रमोह । दर्शनमोह आत्मा के श्रद्धान गुण का एवं चारित्रमोह चारित्र गुण का घात करता है ।
आयुष कर्म जिस कर्म के रहते प्राणी नर, नारकादि रूप से जीता है और पूरा होने पर मर जाता है । यह कर्म कारागार के समान है ।
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