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नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव कभी नारक, कभी तिर्यंच कभी मनुष्य और कभी देव कहलाता है । इसी प्रकार जो कर्म जीव को एकेन्द्रिय आदि नानाविध पर्यायों में परिणत करता है, वह नाम कर्म है । यह कर्म चित्रकार के समान माना गया है । जैसे चित्रकार नाना चित्र बनाता है, वैसे नाम कर्म भी जीव के नाना रूप बनाता है । ____ गोत्र कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव जीवन की उच्च और नीच स्थिति को प्राप्त करता है, यह कर्म कुम्भकार के समान है । जैसे कुम्भकार अच्छे-बुरे घड़ों को बनाता है, वैसे ही यह कर्म भी जीव को उच्च और नीच बनाता रहता है ।
अन्तराय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य शक्ति का घात होता है, अथवा इनमें रुकावट पड़ती है । यह कर्म भण्डारी के समान है । राजा देता है, भण्डारी बाधा डालता है । वैसे ही इस कर्म से दान, लाभ आदि में बाधा पड़ती है ।
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