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प्रस्तावना
xvii तत्काल ही इसकी फोटो कॉपी भेज दी। इसके लिए वे अत्यन्त धन्यवाद के पात्र हैं।
यह पूर्ण ग्रन्थ मुद्रित होने के पश्चात्, उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी की ओर से ईस्वी सन् १९८६ में भोट भारतीय ग्रंथमाला-६ में मुद्रित-प्रकाशित हुए न्यायप्रवेशकवृत्ति ग्रन्थ अभी-अभी मेरे देखने में आया है। इस ग्रन्थ के अनुवादक एवं सम्पादक विद्वान् आ. सेम्पा दोर्जे महोदय ने इन दोनों ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में भाषान्तर कर भोट लिपि में ही मुद्रण किया है । इस संस्करण में भोट भाषा में ही लिखी हुई १३६ पृष्ठों की अत्यन्त विस्तृत भूमिका है। ___ यह समस्त भोट भाषानुवाद ईस्वी सन् १९३० ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा से प्रकाशित हुए न्यायप्रवेशक तथा न्यायप्रवेशकवृत्ति को सामने रखकर, आ. सेम्पा दोर्जे ने स्वयं अनुवाद किया है । इसलिए हमारे सम्पादित संशोधित न्यायप्रवेशक तथा न्यायप्रवेशकवृत्ति में कहीं पर पाठभेद भी देखने में आ सकता है ।
ग्रन्थ में सुधारने योग्य पाठ ( ) ऐसे कोष्ठक में दिया गया है और सरलता अथवा स्पष्टता के लिए कोई बढाये गये पाठ हमने [-] ऐसे कोष्ठक में दिया है ।
कई स्थलों पर प्रतियों के पास में मू० और सं० ऐसा निर्देश हमने किया है । उदाहरणार्थ- JIमू० अर्थात् J1 में मूल लिखित पाठ, JIसं० अर्थात् J1 में ही किसी के द्वारा सुधारा गया संशोधित पाठ। इस संशोधन-पद्धति का हमने टिप्पण में निर्देश किया है।
धन्यवाद
न्यायप्रवेशक मूल, वृत्ति तथा पञ्जिका का संशोधन करने के लिए जैसलमेर, खंभात, पाटण आदि के ताडपत्रीय लिखित ग्रन्थों से जो पाठभेदों का संकेत स्वर्गीय आगमप्रभाकर पूज्य मुनिराज श्री पुण्यविजयजी महाराज ने किया था उसी को आधारभूत मानकर हमने यह संशोधन सम्पादन किया है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ के आद्य संशोधक वे ही हैं । इस संशोधन-सम्पादन के क्षेत्रमें द्वादशारनयचक्र के माध्यम से मुझे लाने वाले भी वे ही हैं। इसलिए उनको मेरा कोटिशः वन्दन तथा अभिनन्दन है।
भारत में इस न्यायप्रवेशक के भोट भाषानुवाद को भोट लिपि में छापने का कार्य हमारे लिए अत्यन्त दुष्कर था । इसलिए जापान में ही भोट लिपि में नार्थंग संस्करण
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