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न्याय-कापिका भाषामें ा है, क्योंकि इसमें प्रमाणनयात्मक करने । अतः न्यायदीपिकाका नामकरण भी
"और वह उसके अनुरूप है।
सियोंके लिए संस्कृत भाषामें नि अतः सरलता से विशद विवेचन करनेवाले और वह पाठकके हृदयपर अपना सहज प्रभाव शताब्दिमें हुए और 'जैनतर्कभाषा' श्रा ताम्बरीय विद्वान् उपाध्याय यशोविज भावित हुए हैं। उन्होंने अपनी दार्शनि पेकाके अनेक स्थलोंको ज्योंका त्यों और : न्यायदीपिकामें जिस खूबी के साथात — वर्णन किया गया है वह अपनी खत यह संक्षिप्त कृति भी न्यायस्वरूप र्षणकी प्रिय वस्तु बन गई है। इना पर्याप्त है कि वह जैनन्यायया' पाने के सर्वथा योग्य है।
पानि अधिकांशतः दुरूह और गम्भीर होती है, या श्रारणबुद्धियोंका प्रवेश सम्भव नहीं होता । साति न दुरूह है और न गम्भीर एवं जटिल मी खन्त प्रसन्न, सरल और बिना किसी कठिनाई रूप यह बात भी नहीं कि ग्रन्थकार वैसी रचना है। उनका विशुद्ध लक्ष्य अकलङ्कादि रचित उन न्यायस्यविनिश्चय आदि न्याय-ग्रन्थों में मन्दजनोंकोंभी
बातको स्वयं धर्मभूषणजीने ही बड़े स्पष्ट और चरण पद्य तथा प्रकरणारम्भके प्रस्तावना वाक्यों औष्ठक्से समूचे ग्रन्थकी रचना भी प्रशस्त एवं हृद्य
'सामग्री और चिन्तनपरसे म पछनिक ग्रन्थ, चाहे वे जैनेत - एचे जाते थे। जैसे न्यायदर गयकलिका, न्यायसार, न दर्शनमें न्याय-प्रवेश, न्या प्रतार, न्यायविनिश्चय, स्त्रदीपिका जैसे दीपिका
है । सम्भवतः अभिन 'स्तुत कृतिका नाम
सार, --ग्रन्थोंकी ओर जब हम दृष्टिपत्त करते हैं तो उनकी पश, न्यारकी उपलब्ध होती है:-१सूत्रात्मक,२व्याख्यात्मक और रचय. जो ग्रन्थ संक्षेपमें गूढ़ अल्पाक्षर और सिद्धान्ततः मूलके दीपिकत्रात्मक हैं । जैसे-वैशेषिकदर्शनसूत्र,न्यायसूत्र, परीक्षा
अभि और जो किसी गद्य पद्य या दोंनोंरूप मूलका व्याख्यान "नामा, वृत्ति) रूप हैं वे व्याख्यात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे—प्रशस्त
१४-१६, १७ ।
१७। न्यायदीपिका पृ० १, ४, ५। ..