Book Title: Nirgrantha Pravachan
Author(s): Chauthmal Maharaj
Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar

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Page 8
________________ साधारण मनुष्यों की अपेक्षा कुछ अधिक बोध होने लगा। वे मध्यलोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों में से सात द्वीप-समुद्र ही जान पाये । लेकिन उन्हें ऐसा भास होने लगा मानों वे सम्पूर्ण ज्ञान के धनी हो गये हैं और अब कुछ भी जानना शेष नहीं रहा। बस, उन्होंने यह घोषणा कर दी कि सात ही द्वीप समुद्र है-इनसे अधिक नहीं । तात्पर्य यह है कि जब कोई व्यक्ति कुजान या अज्ञान के द्वारा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को पूर्ण रूप से नहीं जान पाता और साथ ही एक धर्म प्रवर्तक के रूप में होने वाली प्रतिष्ठा के लोभ को संवरण मी नहीं कर पाता तब वह सनातन सत्य मत के विरुद्ध एक नया ही मत जनता के सामने रख देता है और मोली-भाली जनता उस भ्रममूलक मत के जाल में फेंस जाती है। विभिक्ष मतों की स्थापना का कारण काय है। विनी गति में कभी कषाय की बाढ़ आती है तो वह क्रोध के कारण, मान-बड़ाई के लिए अथवा दूसरों को ठगने के लिए मा विसी लोभ के कारण, एक नया ही सम्प्रदाय बना कर खड़ा कर देता है । इस प्रकार अज्ञान और कपाय को करामात के कारण मुमुच जनों को सच्चा मोक्षमार्ग लूंड निकालना अतीव दुष्कर कार्य हो जाता है। कितने ही लोग इस भूलभुलैया में पहकर ही अपने पावन मानवजीवन को यापन कर देते हैं और कई झुंशला कर इस ओर से विमुख हो जाते हैं। ___"जिन खोजा तिन पाइयों की नीति के अनुसार जो लोग इस बात को भली-भांति जान लेते है कि सब प्रकार के अज्ञान से शून्य अर्थात सर्वज्ञ और कषायों को समूल उन्मूलन करने वाले अर्थात् वीतराग की पदकी जिन महानुभावों ने तीन तपश्चरण और विशिष्ट अनुष्ठानों द्वारा प्राप्त कर ली है, जिन्होंने कल्माणपथ-मोक्षमार्ग-को स्पष्ट रूप से देख लिया है, जिनकी अपार करुणा के कारण किसी भी प्राणी का अनिष्ट होना संभव नहीं और जो जगत् का पथ-प्रदर्शन करने के लिए अपने इन्द्रवत् स्वर्गीय वैभव को तिनके की तरह स्याग कर अकिञ्चन बने हैं, उनका बताया हुआ—अनुमूत-मोक्षमार्ग कदापि अन्यथा नहीं हो सकता, वह मुक्ति के मंगलमय मार्ग में अवश्य प्रवेश करता है और अन्त में चरम पुरुषार्थ का साधन करके सिद्ध-पदवी का अधिकारी बनता है।

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