Book Title: Nirgrantha Pravachan Author(s): Chauthmal Maharaj Publisher: Jain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar View full book textPage 7
________________ संसार में दुःखों का क्या ठिकाना है ? प्रात:काल जो राजसिंहासन पर आसीन थे, दोपहर होते ही वे दर-दर के भिखारी देखें जाते हैं। जहाँ अभी रंगरेलियां उड़ रही थीं, वहीं क्षणभर में हाय-हाय की चीत्कार हृदय को चीर डालती है। ठीक ही कहा है--- "काई घर पुन जापा, काहू के वियोग आयो, का राग-रंग काहू रोआ-रोई परी है।" गर्भवास की विकट वेदना, व्याधियों की धमाचौकड़ी, जरा-मरण की व्यथाएँ, नरक और तिर्यञ्च गति के अपरम्पार दुख ! सारा संसार मानों एक विशाल भट्टी है और प्रत्येक संसारी जीव उसमें कोयले की नाई जल ___ बास्तव में संसार का यही सच्चा स्वरूप है। मनुष्य जब अपने आन्तरिक नेत्रों से संसार को इस अवस्था में देख पाता है तो उसके अन्तःकरण में एक अपूर्व संकल्प जागृत होता है । वह इन दुःखों की परम्परा से छुटकारा पाने का उपाय खोजता है । इन दारुण आपदाओं से मुक्त होने की उसकी आन्तरिक भावना जागृत हो उठती है। जीव की इसी अवस्था को 'निर्वेद' कहते है। जब संसार से जीव विरक्त या विमुख बन जाता है तो वह संसार से परे—किसी और लोक की कामना करता है—मोक्ष चाहता है । मुक्ति की कामना के वशीभूत हुआ मनुष्य किसी 'गुरु' का अन्वेषण करता है । गुरुजी के चरण-शरण होकर वह उन्हें आत्म-समर्पण कर देता है। अबोष बालक की मौति उनकी अंगुलियों के इशारे पर नाचता है । भाग्य से यदि सच्चे गुरु मिल गए तब तो ठीक, नहीं तो एक बार भट्टी से निकल कर फिर उसी मट्टी में जा पड़ता है। तब उपाय क्या है ? वे कौन से गुरु है जो आत्मा का संसार से निस्तार कर सकने में सक्षम है ? यह प्रश्न प्रत्येक आत्महितषी के समक्ष उपस्थित रहता है। यह निर्ग्रन्य-प्रवचन इस प्रश्न का संतोषजनक समाधान करता है और ऐसे तारक गुरुओं की स्पष्ट व्याख्या हमारे सामने उपस्थित कर देता है। ___संसार में जो मतमतान्सर उत्पन्न होते है, उनके मूल कारणों का यदि अन्वेषण किया जाय तो मालूम होगा कि कषाय और अज्ञान ही इनके मुख्य बीज है। शिव राजर्षि को अवधिज्ञान, जो कि अपूर्ण होता है, हुमा । उन्हेंPage Navigation
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