Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 9
________________ स्वसंवेदन तो सब अबाल-गोपाल प्राणीमात्र को निरंतर होती है; परंतु जिस स्वसंवेदन में-स्वानुभूति में पर के साथ एकत्वबुद्धि होती है वह अज्ञानमूलक होने से वह सराग स्वसंवेदन, सराग स्वानुभूति कही जाती है / वह अज्ञानी को होती है। जिस संवेदन में-स्वानुभूति में भेदज्ञान पूर्वक आत्मस्वरूप का दर्शन, ज्ञान, अनुभव होता है वह न पाहे वह सराग सम्यग्दृष्टि का हो या वीतराग सम्यग्दृष्टि का, वह सब वीतराग स्वसंवेदन ही आत्मानुभूति कही जाती है। यद्यपि लोक व्यवहार में सोलह ताव देने पर ही सुवर्ण शुद्ध कहा जाता है; तथापि लौकिक शास्त्र में सोलह ताव देने के पूर्व में भी सुवर्ण परीक्षक सुवर्णकस के आधार से मलसहित अवस्था में भी मल से भिन्न पृथक् शुद्ध सुवर्ण का परिज्ञान-अनुभव कर सकता है / उसी प्रकार वीतराग अवस्था में तो वीतरागी-संयमी मुनि को शुद्धात्मा की अनुभूति होती ही है ; परंतु सराग अवस्था में भी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती भेदज्ञानी सराग सम्यग्दृष्टि भी अपने वीतरागी (राग से भिन पृथक्) शुद्ध आत्मा की अनुभूति भेदविज्ञान के आधार पर कर सकता है / यही समयसार अध्यात्म ग्रंथ का एक गूढ रहस्य है। “एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् / सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्माच् तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्व संतति मिमात्मायमेकोस्तु नः // 6 // " शुद्धनय से एकत्व-विभक्त स्वभाव में सुनियत, सुव्यवस्थित, व्यापक पूर्ण ज्ञानघन जो कारणपरमात्मा है, उसका अन्य सब परद्रव्य और परभाव इन से पृथक् दर्शन-इसीको निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है। _ शुद्धोपयोग के विना अत्मोपलंभ होता नहीं / आत्मोपलंभ के विना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं / शुद्धात्मोपलंभ से ही संवर-निर्जरा होती है / (शुद्धात्मोपलंभात् एव संवर) चतुर्थगुणस्थान संवर-निर्जरा का प्रथम स्थान

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