Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 58
________________ (44) देखो प्रवचनसार गाथा नं. 191 का शीर्षक और गाथा - 'शुध्दनयात् शुभ्दात्मलाभ एव इति अवधारयति' शुध्दनय से शुध्दात्मा का लाभ ही होता है, ऐसा निश्चित करते हैं। णाहं होमि परेसिंण मे परे संति णाणमहमेक्को / इदि जो झायदिझाणे सो अप्पाणं हवदिझादा // 191 // अर्थ - मैं परका नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं, मैं एक ज्ञान हूँ, इस प्रकार ( पारिणामिकभाव का ) जो ध्यान करता है वह आत्मा ध्यानकाल में आत्मा का ( अनुभव करनेवाला ) ध्याता होता है। श्री कुंकुंदाचार्यजी नियमसार गाथा नं. 96 में लिखते हैं - केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावसुहमइओ। केवलसत्तिसहाओ सोहं इदि चिंतए णाणी // 96 // अर्थ - केवलज्ञानस्वभावी, केवलदर्शनस्वभावी, सुखमय और केवल शक्तिस्वभावी वह मैं हूँ, ऐसा ज्ञानी चितवन करते हैं। इसलिये अव्रती गृहस्थ भी इस प्रकार पारिणामिकभाव का चिंतवन करता है / इस प्रकार से चिंतवन करने में कुछ बाधा नहीं है। देखो नियमसार गाथा नं. 18 की टीका में कलश नं. 34 असति सति विभावेऽतम्य चिंतास्ति नो नः सततमनुभवामः शुध्दमात्मानमेकम् / हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं न खलु न खलु मुक्तिर्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात् // 34 // . - अर्थ - हमारे आत्मस्वभाव में (पारिणामिक भाव में ) विभाव असत् * होने से उसकी हमें चिन्ता नहीं है; हम तो हृदयकमल में स्थित सब कर्मो से विमुक्त, शुध्द आत्मा का ( अपने निजशुध्द पारिणामिकभाव का ) एक का सतत अनुभव करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है /

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