________________ च) परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्यायात्मक जीवादि पदार्थ हैं, ऐसा आगमभाषा से जानकर, आध्यात्मभाषा से शुद्धात्मानुभूति के लिये ‘स्वद्रव्य पर्याय का' आश्रय करता है, वह उभयाभासी है, मिथ्यात्वी है / उदाहरण के लिये आधार-समयसार गाथा नं. 142 की आत्मख्याति टीका, “यः पुनः जीवे बद्धमं च कर्म इति विकल्पयति स तु तं द्वितीयं अपि पक्षं अनतिक्रामन् न विकल्पं अतिक्रामति / जो स्वानुभूति के लिये द्रव्य और पर्याय का आश्रय करता है याने निश्चय और व्यवहारका आश्रय हो जाने से वह द्वैत में ही ( विशेष में ही) आ जाता है इसलिये मिथ्यात्वी है / छ) जो जीव आगमभाषा से जीवादि पदार्थों की जानकारी प्राप्त न करके; अध्यात्मभाषा से स्वद्रव्य का सकलादेशी चिंतवन करने योग्य है, ऐसा मानता है (अर्थात् निश्चयनय के विषय का आश्रय करता है ) वह असमीचीन है, मिथ्यात्वी है। - इसके लिये आधार- जयधवला भाग - 1, पृष्ठ 6 " जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसा रित्तविरोहादो"। अर्थ - जो शिष्य युक्ति की अपेक्षा किए बिना, मात्र गुरुवचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है, वह प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है / ज) जो जीव आगमभाषा से जीवादि पदार्थों की जानकारी प्राप्त न करके, अध्यात्मभाषा से शुध्दात्मानुभूति के लिये 'पर्याय' (व्यवहार नयका विषय आश्रय कनने योग्य है,ऐसा मानता है वह असमीचीन है, मिथ्यात्वी है / झ) परस्परसापेक्ष द्रव्यपर्यायत्मक जीवादि पदार्थ हैं ऐसा आगमभाषा से जानकर अध्यात्म भाषा से शुध्दात्मानुभूति के लिये स्वद्रव्य का विकलादेशी दृष्टि से आश्रय करता है, अर्थात् सद्भूत व्यवहारनय के विषय का आश्रय करता है, वह असमीचीन है, मिथ्यात्वी है / समयसार गाथा नं. 320 ( आत्मख्याति ) की तात्पर्यवृत्ति में श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं .......