________________ (54) संक्षेप में कोष्टक का स्पष्टीकरण - क) परस्परसापेक्ष द्रव्यपर्यायात्मक जीवादि पदार्थ है, ऐसा आगमभाषासे जानकर, अध्यात्मभाषा से शुद्धात्मानुभूति के लिये स्वद्रव्य का सकलादेशी दृष्टि से आश्रय करता है (अर्थात निश्चयनय के विषय का आश्रय करता है ) वह समीचीन जानता है; और शुद्धात्मानुभूति होने से वह सम्यक्त्वी होता है / इस के लिये आधार संपूर्ण जिनवाणी है, उदा. कुछ आधार-समयसार गाथा 13,14,15 और 11, और उनकी आत्मख्याति संस्कृत टीका. ख) परस्परसापेक्ष द्रव्यपर्यायात्मक जीवादि पदार्थ है ऐसा आगमभाषा से जानकर, अध्यात्मभाषा से शुद्धात्मानुभूति के लिये अपनी खुद की अशुद्धपर्याय अथवा भाविकालीन शुद्धपर्याय अथवा अन्यद्रव्य (याने पंचपरमेष्ठी इत्यादिका) आश्रय करता है, वह असमीचीन जानता है, परसमय में रत है इसलिये मिथ्यात्वी है / उदाहरण के लिये कुछ आधार प्रवचनसार गाथा नं. 79, पंचास्तिकाय संग्रह गाथा नं. 166, नियमसार गाथा नं. 144 इत्यादि. .. ग) जीवादि पदार्थ को सर्वथा द्रव्यमय और पर्यायरहित मानता है, और अध्यात्मभाषा से शुद्धात्मानुभूति के लिये द्रव्यका आश्रय करता है / यहाँ क्रमांक 'क' के समान द्रव्य का चितवन करता है तो भी आगमभाषा का यथोचित ज्ञान नहीं है इसलिये निश्चयाभासी है, मिथ्यात्वी है / उदाहरण के लिये आधार - अष्टसहस्त्री पृष्ठ 27 - " निर्विशेष हि सामान्यं भवेत् शशविषाणवत्" . . ध) जीवादि पदार्थ को आगमभाषा से द्रव्यरहित और सर्वथा पर्यायमय मानता है, और अध्यात्मभाषा से शुद्धात्मानुभूति के लिये पर्याय का आश्रय करता है, वह जीव व्यवहाराभासी है, मिथ्यात्वी है / उदाहरण के लिये आधार - अष्टसहस्त्री पृष्ठ नं. 27 " निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् / सामन्यरहितत्त्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि // "