________________ (59) श्रवण करिकै चकितचित्त हो गयो / स्वामी तो मैं के नगीच मैं उठकरि भीतर जैन मंदिर में चले गये अर मैं मेरा मन में बहुत बिचार कीया ! वो प्रसिध्द सिध्दं परमात्मा मैंकू कोई ठिकाणे कोई द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव मैं दीख्या नहीं / मैं विचार कीया के कालो पीलो लाल हरयो धोलो काया छायासे अलग है तो बी प्रसिध्द सिध्द प्रगट है अर मैं तो जिधर देखता हूँ उधर वर्ण रंग कायादिक ही दीखता है / वो प्रसिध्द सिध्द प्रगट है तो मैं * क्युं नहीं दीखता इत्यादि विचार बहूत कीया बाद पश्चात् स्वामीसैं मैं कही-हे कृपानाथ वो प्रसिध्द सिध्द प्रगट है सो तो मैं कू दीखता है नहीं। तब स्वामी बोले-ज्यो अंधा होता है उसकूँ नहीं दीखता है / मैं फेर स्वामीसैं प्रश्न नहीं कीयो, चुपचाप रह्यो; परंतु जैसे स्वान के मस्तग मैं कीट पड जावै तैसे मैं का मस्तग मैं भ्रांति सी पड़ गई / उस भ्रांति चुकत मैं ज्येष्ठ महिनों में समेद सिखर गयो तहां बी पहाड के उपर नीचे बन में उस प्रसिध्द सिध्द परमात्माकू देखणे लग्यो / तीन दिवस पर्यंत देख्यो, परंतु वहाँ बी वो प्रसिध्द सिध्द दीख्यो नहीं / बहुरि पीछो पलट करिकै 10 ( दस ) महिना पश्चात् देवेंद्रकीर्ति स्वामी के समीप आयो। स्वामीसैं वीनती करी-हे प्रभु वो प्रसिध्द सिध्द परमात्मा प्रगट है तो मै कू दीखतो नहीं आप कृपा करिके दीखायो / तब स्वामी बोले - सर्वकू देखता है ताकू देख तू ही है / ऐसे स्वामी मैंका कर्ण में कही / तत् समय मेरी मेरे भीतर अंतरात्म अंतरद्रष्टी हो गई सो ही मैं इस ग्रंथ में प्रगटपणे कही है। जैसो-जैसो पीवै पाणी, तैसे-तैसो बोले वाणी / इसी दृष्टान्त द्वारा निश्चय समजणा / मेरा अंतःकरण मैं साक्षात् परमात्मा जागती ज्योति अचल तिष्ठ गई। उसी प्रमाण की मैं वाणी इस पुस्तक मैं लिखी है / अब कोई मुमुक्षुकू जन्म मरण के दुःख से छूटणे की इच्छा होय तथा जागती ज्योति परंब्रम्ह परमात्मा को साक्षात् स्वानुभव लेना होय सो मुमुक्षु विषय मोटा पापं अपराध सप्त. विषयन छोडकरिकै इस पुस्तक के एकांत में बैठकरि मैं मन को मन में मनन करो वांचो पढो / " परमात्मा प्रकासादिक " ग्रंथसैंभी इस में स्वानुभव होणे