Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 72
________________ (58) मंत्रादिक बहुत किया / ताकी मैं मेरा अंतःकरण मैं अभिमान अहंकाररूपी सर्प का जहर व्याप्त हो गया था तिस कारणनै मैं मेरे कू भला मानतो थो अन्यकुं झूठा, पोटा ( खोटा ), बुरा मानतो थो / उसी बहिरात्मदिसा मैं मैंकू तेरापंथी श्रावग दिल्ली अलिगढ कोयल आदि बडे सहरों में मेरा पांव में प्रणम्य नमस्कार पूजा करते थे इस कारण मैं बी मेरा अंतःकरण मैं अभिमान अज्ञान ऐसा था के मैं भला हूँ श्रेष्ठ हूं अर्थात् उस समय यह मोकू निश्चय नहीं थी के निंदा स्तुति पूजा देह की अर नाम की है। बहुरि मैं भ्रमण करतो बराड देश में अमरावती शहर है वहाँ गया थो / तहाँ चातुर्मास में रहयो थो / तहां श्रावगमंडली कू उपदेश द्वेष का देतो थो / अमुका भला है अमुकां षोटा (खोटा) है इत्यादिक उपदेस समयकू जलालसंगी मैंकू कही के आप किसकूँ भला बुरा कहते हो जाणते हो मानते हो / सर्व वस्तु आपणा आपणा स्वभावकूँ लीया हुवा स्वभाव में जैसी है तैसी ही है / प्रथम आप आपण। समजो / इस प्रमाण कू जलालसंगी मैं कू कही तो बी मेरी मेरे भीतर स्वानुभव अंतरात्मद्रष्टी न भई / / कारण पायकरि के सहर कारंजा के पटाधीश श्रीमत् देवेन्द्रकीर्तिजी . भट्टारकमहाराज सैं मैं मिल्यो / महाराज का सरीर की वयवृध्दि 95 पच्याणवै वर्षकी स्वामी मैं मैं कही तुमकू सिध्द पूजापाठ आता है के नहीं आता है / तब मैं कही मैं कू आता है / तब स्वामी बोले के सिध्द की जयमाला को अंतको श्लोक पढो, तब मैं अंतको श्लोक - विवर्ण विगंध विमान विलोभ विमाय विकाय विशब्द विसोक अनाकुल केवल सर्व विमोह प्रसिध्द विशुध्द सुसिध्द समूह // 1 // तब श्रीगुरू मैकू कही के स्वयंसिध्द परमात्मा तो कालो पीलो लाल हो सुपेदादिक वर्ण रहित है; सुगंध दुर्गंध रहित है; क्रोध मान माया लोभ रहित है; पंच प्रकार सरीर रहित है तथा छकाया रहित है; शब्द द्वारा भाष होता है: सर्व आकूलता रहित है; सर्व ठिकाणे विशुध्द प्रसिध्द प्रगट है / देखो-देखो तुमकू वो परमात्मा दीखता है के नहीं दीखता है। तब मैं स्वामीका श्रीमुख सैं

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