________________ (42) करनेवाला जीव औदयिक भाव, औपशमिक भाव, क्षायोपशमिकभाव, क्षायिकभाव और पारिणामिक भावों को जानता है / द्रव्य का लक्षण सत् है और सत् का लक्षण-उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त है, यह जानता है। 22) शंका - उत्पाद-व्यय-ध्रुव में जो ध्रुव है वह विकलादेशी (अंश) है / उस विकलादेशी ध्रुव को अव्रती गृहस्थ जानता है, लेकिन सकलादेशी ध्रुव की दृष्टि से अखंड द्रव्य को नहीं जानता, ऐसा मानेंगे तो क्या बाधा आती है ? उत्तर - देखो अष्टसहस्त्री-अध्याय 3, पृष्ठ 211-212. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् // 59 // अर्थ - सुवर्णघटार्थी, सुवर्णमुकुटार्थी और सुवर्णार्थी क्रमशः सुवर्णघट का नाश होनेपर शोक को, सुवर्णमुकुट के उत्पन्न होने पर हर्ष को और दोनों ही अवस्थाओं में ( पर्यायों में) सुवर्ण की स्थिति होने से माध्यस्थ भाव को प्राप्त होता है और यह सब सहेतुक होता है। भावार्थ - एक सुवर्ण का घट था / उस घट को तोडकर मुकुट बनाया। कोई तीन अव्रती जीव थे / एक को सुवर्ण का घट चाहिये था, दूसरे को मुकुट चाहिये था और तीसरे को सुवर्ण चाहिये था। जब पहले व्यक्ति ने घट का व्यय देखा तो उसे दुःख हुआ / दूसरे व्यक्ति ने मुकुट का उत्पाद देखा तो उसे आनंद हुआ / तीसरे व्यक्ति ने सुवर्ण द्रव्य (ध्रुव ) देखा तो वह माध्यस्थ ( दुःख और आनंद से रहित ) रहा। .. __ श्री विद्यानंदाचार्यजी लिखते हैं कि - 'प्रतीतिभेदं इत्थं समर्थयते सकललौकिकजनस्य आचार्यः / ' श्री समंतभद्राचार्य सब लौकिकजनों के प्रतीति ( अनुभूति ) के भेद का समर्थन करते हैं ( अनुभूति के भेद को दिखाते हैं ) / इससे यह सिध्द होता है कि एक द्रव्य है। उस का सत् लक्षण है। उस ही द्रव्य के उत्पाद-व्यय- ध्रुव हैं।