________________ - इस से सिध्द होता है कि अव्रती गृहस्थ पारिणामिकभाव का अनुभव करके सम्यक्त्व प्राप्त करता है और मोक्षमार्गस्थ होता है / नियमसार कलश 25, 26 भी देखो - इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा। सपदि समयसारं तं परं ब्रम्हरूपं .. भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल स त्वम् // 25 // अर्थ - इस प्रकार परगणपर्यायों में होनेपर भी, उत्तम पुरुषों के हृदयकमल में कारणात्मा ( निजपारिणामिकभाव ) विराजमान है। अपने से उत्पन्न ऐसे उस परमब्रम्हरूप समयसार को- कि जिसे तू भज रहा है उसे हे भव्य शार्दूल तू शीघ्र भज, तू वह है। . क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुध्दरूपैर्गुणैः क्वचित्सहजपर्ययैः / क्वचिदशुध्दपर्यायकैः / सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं नमामि परिभावयामि सकलार्थसिध्दये सदा // 26 // अर्थ - जीवतत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता ( आविर्भूत) होता है - दिखाई देता है, क्वचित् अशुध्दरूपगुणों सहित विलसता है / क्वचित् सहजपर्यायोसहित विलसता है और क्वचित् अशुध्दपर्यायों सहित विलसता है / इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे विभक्त है, ऐसे इस जीवतत्त्व को (पारिणामिकभाव को) मैं सकल अर्थ की सिध्दि के लिये सदा नमता हूँ, भाता आगे देखो नियमसार कलश 58 - अंचितपंचमगतये पंचमभावं स्मरन्ति विद्वांसः संचितपंचाराः किंचनभावप्रपंचपरिहीनाः // 58 / /