Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 60
________________ - अर्थ - ( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप ) पांच आचारों से . ‘युक्त और किंचन परिग्रहरूप भाव के प्रपंच से सर्वथा रहित ऐसे विद्वान पूजनीय पंचमगति को प्राप्त करने के लिये पंचमभाव का ( निजपारिणामिक भाव का ) स्मरण करते हैं। याने अव्रती गृहस्थ जीव भी अपने निजपारिणामिक भाव का चितवन करते हैं। 23) शंका - शुध्दनय के और व्यवहानय के पक्षपात से रहित समयसार होता है, ऐसा समयसार गाथा नं. 142 में कहा है / अव्रती गृहस्थ वस्तुस्वरूप को जानकर शुध्दनय का चिंतवन करेगा तो शुध्दनय का पक्षपात रहता नहीं क्या? - उत्तर - (1) यहाँ व्यवहारनय का पक्ष (विकल्प) भी छोडना है और व्यवहारनय के विषयभूत अर्थ को भी छोडना है। (2) निश्चयनय का पक्ष (विकल्प मात्र छोडना है। लेकिन (3) निश्चनय के विषयभूत अर्थ को ग्रहण करना है / यह कैसे कहोगे, तो देखिये जैनेंद्र सिध्दान्त कोश भाग - 2, पृष्ठ 565. . " यथा सम्यग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारी निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते / तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसित भावनकविकल्पोऽपि निवर्तते / एवंहि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीतः।" अर्थ-जिस प्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति होती है; उसी प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की भी निवृत्ति हो जाती है / जिस प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है; उसी प्रकार स्वपर्यवसितभाव से एकत्व का विकल्प ( निश्चयनय से ' आत्मा एक है, शुध्द है, ऐसा विकल्प ) भी निवृत्त हो जाता है / इस प्रकार जीव का स्वपर्यवसित ( अनुभवगम्य) स्वभाव ही नयपक्षातीत है।

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