Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 61
________________ (47) श्री देवसेनाचार्यजी नयचक्र में लिखते हैं कि - " निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय, ज्ञानचैतन्ये संस्थाप्य परमानंद समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रांतं करोति तमिति पूज्यतमः।" . निश्चयनय एकत्व में समुपनीय ( ले जाकर ) ज्ञानचैतन्य में संस्थापित कर के परमानंद को समुपाद्य ( प्राप्त करके), वीतराग करके स्वयं ( स्वतः ) निवृत्त हो जाता है / इस प्रकार वह नयपक्षातिक्रांत करता है ( इस प्रकार जीव को नयपक्ष से अतीत कर देता है ) / इसलिये निचयनय पूज्यतम . इसलिये यह सिध्द हुआ कि जो जीव बुध्दिपूर्वक निश्चयनय का. आश्रय करता ( चितवन करता ) है, वह पक्षातिक्रांत ( विकल्पातीत ) होता है / इस के पहले भी अनेक बार यह सिध्द किया जा चुका है, वह पीछे के पृष्ठों पर से देख लेना। श्री अमृतचंद्राचार्यजी समयसार कलश नं. 122 में कहते हैं - . " इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुध्दनयो न. हि / नास्ति बंधस्तदत्यागात् तत्त्यागावंध एव हि // 122 // " अर्थ - यहाँ यही तात्पर्य है कि शुध्दनय त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि शुध्दनय ( निश्चयनय ) के अत्याग से ( निश्चयनय का त्याग न करनेसे ) बंध नहीं होता और शुध्दनय का ( निश्चयनय का) त्याग करने से बंध होता है। श्री समयसार गाथा - 173 से 176 तक 'सव्वे पुव्वणिबध्दा दु पच्चया संति सम्मदिठिस्स' इत्यादि पांच गाथाओंकी टीका में श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं कि - एतेन कारणेन सम्यग्दृष्टिरबंधको भणित इति / किं च विस्तरः मिथ्यादृष्ट्यपेक्षया चतुर्थगुणस्थाने सरागसम्यग्दृष्टिः त्रिचत्वारिंशत् -

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