Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 57
________________ .. (43).. घटार्थी जीव ने व्यय की दृष्टि से वह अशेषधर्मात्मक द्रव्य देखा तो उस को दुःख की अनुभूति हुई / मुकुटार्थी जीव ने उत्पाद की दृष्टि से वही अशेषधर्मात्मक द्रव्य देखा तो उस को सुख की अनुभूति हुई। सुवर्णद्रव्यार्थी जीव ने ध्रुव ( पारिणामिक भाव अथवा द्रव्य ) की दृष्टि से उसी अशेषधर्मात्मक द्रव्य को देखा तो उस को माध्यस्थ की- शांत परिणाम की अनुभूति हुई। इस में उत्पाद की अनुभूति और व्यय की अनुभूति, इन को पर्याय की अथवा विशेष की अनुभूति कहते हैं , और ध्रुव की अनुभूति को द्रव्य की अथवा सामान्य की अनुभूति कहते हैं। इससे यह सिध्द हुआ कि अव्रती गृहस्थ भी ध्रुव की (पारिणामिकभाव की ) दृष्टि से अखंड द्रव्य की अनुभूति कर सकता है। अपना आत्मा भी एक द्रव्य है / उस अपने आत्मद्रव्य के द्रव्य गुण पर्याय जानकर ध्रुव की दृष्टि से अखंड द्रव्य की अनुभूति अव्रती गृहस्थ भी कर सकता है। पर्याय की दृष्टि से अपने आत्मद्रव्य को मैं मनुष्य; स्त्री, पुरुष, संसारी, छद्मस्थ, रागी, मोही, मुनि, अल्पज्ञ इत्यदि पर्यायस्वरूप देखने से सुख दुःख होते हैं. आकुलता होती है, परमानंद नहीं होता / द्रव्य की (अपने परमानंद होता है, मोह-राग-द्वेष नहीं होते। देखो परमानंद स्तोत्र में लिखते हैं कि - सध्यानं क्रियते भव्यैर्मनो येन विलीयते / तत्क्षणं दृष्यते शुध्दं चिच्चत्मकारलक्षणम् / / 10 // जो भी भव्य जीव सत् का ( अपने निजात्मशुध्दस्वभाव का) ध्यान करता है उसको उसी समय शुध्द चित्चमत्कार लक्षणवाला आत्मा दिखाई देता है ( अनुभूति में आता है ) जिससे उसी समय मन का ( याने संकल्प विकल्प, मोह-राग-द्वेष का) नाश होता है याने शुध्दोपयोग होता है /

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