________________ (11) नहीं है। जो कोई ऐसा कहता है कि गृहस्थ जीव को मुख्य शुद्धनिरालंबधर्मध्यान (याने सप्तम गुणस्थानवर्ती जैसा उत्कृष्ट धर्मध्यान ) होता है वह दिगम्बर जैन दृष्टिवाद अंग के द्वारा कहे हुए गुणस्थानवर्ती ध्यानों को मानता नहीं (जानता नहीं); याने जो गृहस्थी जीव मिथ्यात्व- सासादन- मिश्र गुणस्थानवर्ती हैं उनको आर्त्तरौद्रध्यान होते हैं। जो नग्न दिगम्बर मुनि नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ जीव जो अविरत सम्यक्त्वी और जो देशविरत सम्यक्त्वी जीव हैं, इनमें से अविरत सम्यक्त्वी को जघन्य (अल्प) णिरालंब - स्वानुभूति होती है; और अविरत-सम्यक्त्वी की शुद्धस्वानुभूति से कुछ अधिक दृढता से शुद्धस्वानुभूति देशविरत सम्यक्त्वी को होती है; और देशविरत सम्यक्त्वी की स्वानुभूति से अधिक दृढता से स्वानुभूति सकलसंयमी को होती है / इस प्रकार से धर्मध्यानों का कथन दिगम्बर जैन दृष्टिवाद अंग में है। __इस प्रकार से जो स्वानुभूति का होना नहीं मानता, वह दिगम्बर जैन दृष्टिवाद अंग को नहीं जानता / इससे यह सिद्ध होता है कि अविरत सम्यक्त्वी को शुद्धात्मा का अनुभव होता है / यहाँ सूत्र के (आगम के) सामर्थ्य से गाथा 383 में के मुख्य शब्द का संबंध गाथा नं. 381 के ‘णिरालंब' शब्द के साथ भी है। 6) शंका - यदि गाथा नं. 383 में के मुख्य शब्द का संबंध गाथा नं. 381 के णिरालंब के साथ न करके चतुर्थ गुणस्थानवर्ती और पंचम गुणस्थानवी जीवों को निजशुद्धात्मा की स्वानुभूति (अल्प निरालंबध्यान) नहीं होती ऐसा मानेगे तो क्या बाधा आती है ? उत्तर - तो फिर प्रवचनसार गाथा नंबर 80 की टीका में श्री जयसेनाचार्यजी ने जो लिखा है कि, शुद्धोपयोग से ही दर्शनमोह का उपशमादि होता है वह घटित नहीं होता / जब शुद्धोपयोग (शुद्धात्मानुभूति) के अभाव में सम्यक्त्व प्रगट नहीं होता है, तब सम्यक्त्व के अभाव में चतुर्थ पंचम गुणस्थान और सकलसंसमी के गुणस्थान होगे ही नहीं ; और सम्यक्त्वी के शुद्धात्मानुभव के अभाव में मोक्षमार्ग शुरू नहीं होगा। टीप -1) पूर्वापर आचार्यों के उपदेश की सामर्थ्य से /