________________ होता है ऐसा ऊपर गाथा में कहा है इसलिये शुद्धोपयोग से ही चतुर्थगुणस्थान (अव्रतीसम्यक्त्वी ) होता है। 3) शंका - तत्वानुशासनके इन श्लोकों का अर्थ क्या है ? अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सद्वृष्टिर्देशसंयतः / धर्मध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थे स्वामिनः स्मृताः / / 46 // . मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा / अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकं // 47 // उत्तर - तत्वार्थसूत्र में श्री उमास्वामी आचार्यजी ने 1) अविरत सम्यक्त्वी , 2) देशसंयत, 3) अप्रमत्तगुणस्थान, और 4) प्रमत्त गुणस्थान- इन चार गुणस्थानवी जीवों को धर्मध्यान-के स्वामी माना है / वह धर्मध्यान 1) मुख्य (उत्कृष्ट) धर्मध्यान, 2) उपचार (जघन्य) धर्मध्यान- इस तरह दो प्रकार का है / उसमें उत्कृष्ट धर्मध्यान अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती जीवों को होता है और अविरत सम्यक्त्वी गुणस्थानवाले को, देशसंयमी को और प्रमत्त गुणस्थानवाले जीवों को जघन्य धर्मध्यान होता है / याने धर्मध्यान की उत्कृष्ट स्थिरता और दृढता सकलसंयमी जीव की है, और धर्मध्यान की जघन्य स्थिरता अविरत सम्यक्त्वी जीव की है / मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र गुणस्थानवी जीवों को धर्मध्यान का स्वामित्व नहीं है। 4) शंका - 1) धर्मध्यान का क्या अर्थ है ? ... उत्तर - कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा नं. 471 की संस्कृत टीका में श्री आचार्य शुभचन्द्रजी लिखते हैं कि - " धर्मो वस्तुस्वरूपं धर्मादनपेतं धर्म्य ध्यानं तृतीयम् " . धर्म याने वस्तरूप (वस्तुका स्वभाव ), वस्तु स्वरूप से रहित न हो ऐसा जो ध्यान उसको धर्मध्यान कहते हैं / धर्म के बिना उस ध्यान का अस्तित्व नहीं पाया जाता है। .. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा नं. 472 की संस्कृत टीका में लिखते हैं कि -