Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 49
________________ 4) निश्चयेन संसारे | / 4) व्यवहारेण तत्साधनार्थं पतन्त-मात्मानं . . धरतीति देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तम विशुद्धज्ञानदर्शन लक्षणंनिजशुद्धात्म क्षमामार्दवार्जवसत्यशौच संयम भावनात्मको धर्मः . | तपस्त्यागा किञ्चन्यब्रह्मचर्यलक्षणो दशप्रकारो धर्म : . निश्चय से जो संसार में व्यवहार से उसके साधन के लिये पडते हुए आत्मा को धारण करके देवन्द्र, नरेन्द्र आदि द्वारा वन्यपदमें रखता है वह विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणमय | जो धरता है, पहुंचाता है वह उत्तम निजशुद्धात्मा की भावनारूप धर्म है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, | संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रम्हचर्य रूप दस प्रकार का धर्म है। इत्यादि / इत्यादि। अब देखो प्रवचनसार गाथा नं 9 की टीका में श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं कि - ____ “व्यवहारेण . . तपोधनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्य इति"। - याने व्यवहार से तपोधन की अपेक्षा से मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठान से परिणत भाव शुभभाव (शुभोपयोग) है ऐसा जानो / तो मूलोत्तर गुणों में गुप्ति इत्यादि आ जाने से व्यवहाररूप व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म इत्यादि शुभभाव सिद्ध हुए / शुद्धात्मानुभूति (अपने निज स्वभाव की भावना) ही संवर का कारण है / शुद्धात्मानुभूति से संवरपूर्वक निर्जरा होती है / इसलिये व्यवहाररूप व्रत, गुप्ति इत्यादि को उपचार से संवर का कारण कहा है / याने व्यवहाररूप व्रत, गुप्ति इत्यादि से शुभभाव होने से, पुण्यास्रव होता हैं / याने व्यवहाररूप व्रत गुप्ति इत्यादि निश्चय से संवर पूर्वक' निर्जरा के कारण नहीं है / शुद्धात्मानुभूति लेते समय (अपने पारिणामिकभाव की भावना करते समय) जो अपने आत्मगुणों का प्रतपन होता है वह तप है / इसलिए शुद्धत्मानुभव से

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