Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 40
________________ (26) अर्थ - इस प्रकार का आर्त और रौद्र ध्यान गृहस्थों के परिग्रह आरंभ और कषायादि दोषों से मलिन अंतःकरण में स्वयमेव निरंतर होते हैं इसमें कुछ भी शंका नहीं है / यह आत्त'रौद्र ध्यान निन्दनीय हैं / क्षायोपशमिको भावः कालश्चान्तर्मुहूर्तकः / दुष्टाशयवशादेतदप्रशस्तावलम्बनम् // 39 // प्रकरण 28 अर्थ - यह क्षायोपशमिकभाव है इसका काल अंतर्मुहूर्त है और दुष्ट आशय के वश से अप्रशस्त का (पर पदार्थ का ) अवलंबन करनेवाला है। अब.धर्मध्यान का स्वामी चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव भी है यह दिखाते किंच कैश्चिच्च धर्मस्य चत्वारः स्वामिनः स्मृताः / सद्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्ता यथायोग्येन हेतना // 28 // ... प्रकरण 28 . . अर्थ - यथायोग्य हेतु से अविरत सम्यक्त्वी, देशविरत सम्यक्त्वी, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत यह चार गुणस्थानवी जीव धर्मथ्यान के स्वामी हैं ऐसा कितने ही (अनेक) आचार्यों द्वारा कहा गया है / . इसके पहले श्री नागसेनमुनि विरचित तत्वानुशासन का श्लोक नं. 46 उद्धृत किया ही है / श्री पूज्यपादाचार्य सर्वार्थसिध्दि में अध्याय 9, सूत्र नं. 36 की टीका में लिखते हैं कि-"तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति"। .. अर्थ - वह धर्म ध्यान अविरतसम्यक्त्वी देशविरत सम्यक्त्वी, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इनको होता है। 13) शंका - शुध्दात्मानुभूति शुक्लध्यान में 8 वें गुणस्थान से होती है, उसी प्रकार धर्मध्यान में शुध्दात्मानुभूति होती है; तो धर्मध्यान में और शुक्लध्यान में समानता होती है क्या ?

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