Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 42
________________ (28) चितवन को शुध्दोपयोग, शुध्दात्मानुभूति, निश्चय रत्नत्रय, निर्विकल्प समाधि, शुध्दध्यान, सध्यान, इत्यादि कहते हैं / श्री जिनसेनाचार्यजी महापुराण में पर्व 21, श्लोक 11 में लिखते हैं / थीबलायत्तवृत्तित्वाद्ध्यानं तज्ज्ञैर्निरुच्यते / यथार्थमभिसन्धानादपध्यानमतोऽन्यथा // 11 // अर्थ - बुध्दिपुर्वक (बुध्दि के आश्रय से ) यथार्थ के साथ वस्तुस्वरूप का ज्ञान करके निजस्वभाव शुद्धपरमात्मा (पारिणामिकभाव - कारण परमात्मा) के साथ अभिसंधान करने पर ध्यान अथवा सध्यान अथवा शुध्दात्मानुभूति होती है / और बुध्दिपूर्वक ( बुध्दि के आश्रय से) अन्यथा याने अयथार्थ के साथ ( वस्तुस्वरूप का ज्ञान करके या वस्तुस्वरूप का ज्ञान न करके स्व द्रव्य गुण पर्याय के भेद के साथ अथवा अन्य द्रव्यों के द्रव्य गुण पर्याय के साथ) अभिसंधान करने पर जो ध्यान होता है वह अपध्यान (असत् ध्यान अथवा अशुध्दात्मानुभूति) है / इस प्रकार से ज्ञानियों ने कहा है / याने बुध्दिपूर्वक जो विचार किया वह ध्यान है। ध्यान के (1) सत्, और (2) असत् ऐसे भेद हैं, असत् के (1) शुभ, और (2) अशुभ ऐसे भेद हैं। इसी बात को श्री कुंदकुंदाचार्यजी प्रवचनसार गाथा नं. 181 में कहते हैं, देखो - सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये // 181 // . . अर्थ - पर के प्रति ( दूसरों के बारे में ) शुभ परिणाम पुण्य है और पर के प्रति ( दूसरों के बारे में ) अशुभ परिणाम पाप है / और जो परिणाम दूसरों के प्रति नहीं जाता ऐसा परिणाम उसी समय दुखः क्षय का ( संवरपूर्वक निर्जरा का-शुध्दात्मानुभूति का- परमानंद का-निराकुलता का) कारण है, ऐसा कहते हैं।

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