________________ आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये चार ध्यान हैं / उनमें से आर्त रौद्र को अप्रशस्त (अशुध्द-असत्) ध्यान कहते हैं और धर्म शुक्ल को प्रशस्त (शुध्द -सत्) ध्यान कहते हैं। इस प्रकार ध्यान के दो प्रकार होते हैं। " कर्मदहनसामर्थ्यात् प्रशस्तम्' कर्मदहन की सामर्थ्य होने से धर्म और शुक्ल ध्यान को प्रशस्त कहते / हैं / इस से सिध्द होता है कि धर्मध्यान से संवरपूर्वक निर्जरा होती है / सम्यक्त्वी अविरती गृहस्थ को धर्मध्यान होने से संवरपूर्वक निर्जरा होती है / धर्म याने वस्तु का स्वभाव / अपने निज शुध्दात्म स्वभाव का जो ध्यान वह धर्मध्यान है / उस को ही शुध्दध्यान, सत्ध्यान, शुध्दोपयोग कहते हैं / उस धर्मध्यान की (शुध्दात्मानुभूति की) अधिकतर दृढता होने से वह जीव सकल संयमी होता है / उसी स्वभाव के ध्यान की जब अधिकतम दृढता बन जाती है. और अधिकतम स्थिरता होती है, उसे शुक्लध्यान कहते हैं। ___ पहले पृष्ठ नं. 27 पर यह बताया है कि धर्मध्यान और शुक्लध्यान में अपने निज स्वभाव का ध्यान है। 14) शंका - अव्रती गृहस्थ निजस्वभाव का ( अपने पारिणामिकभाव का) चिंतवन कर सकता है क्या ? उत्तर - अव्रती गृहस्थ जीव भी अपने निजस्वभाव का चितवन कर सकता है / देखो महापुराण पर्व 21, श्लोक नं. 21 किमत्र बहुना यो यः कश्चिद्भावः सपर्ययः / स सर्वोऽपि यथाम्नायं ध्येयकोटिं विगाहते // 21 // अर्थ - ध्यान में विषय कौनसा होता है, इस के बारे में ज्यादा विचार करने का कारण नहीं है / यथा आम्नाय जगत का कोई भी पदार्थ, उसके द्रव्य-गुण-पर्याय ध्येयकोटिमें (ध्यान में) आते हैं।