________________ उसकी पातनिका में (शीर्षक में ) श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं कि- . “यदुक्तं शुद्धोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादि विनाशाभावे शुद्धात्मलाभो न भवति, तदर्थमेवेदानीमुपायं समालोचयति।" जो पूर्व में कहा है कि शुद्धोपयोग के अभाव में दर्शनमोहादि का विनाश नहीं होता है, और दर्शनमोहादि के विनाश के अभाव में शुद्धात्मलाभ नहीं होता , तो दर्शनमोह का नाश करनेके लिये उपाय बताते हैं / याने शुद्धोपयोग से ही दर्शनमोह का उपशमादि होता है (अनादि मिथ्यात्वी हो तो शुद्धोपयोग से प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है), शुद्धोपयोग और प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति इनमें समयभेद नहीं है / यहाँ शुद्धोपयोग यह सहचर हेतु है, जैसे बिजोरा निंबू रसवान है क्योंकि रूपवान है। 1 / अध्यात्मभाषा आगमभाषा (गाथा 80 की टीका) १.“निश्चयनयेन...निज १.“अधप्रवृत्तिकरणापूर्वक- 1 शुद्धात्मभावनाभिमुखरूपेण करणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शन- सातिशय अशुद्धोपयोग . सविकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन मोहक्षपणसमर्थपरिणाम- मिथ्यात्व पंचाध्यायी ...आत्मनि योजयति / " विशेषबलेन ...आत्मनि अध्याय 2 योजयति।" श्लोक 407, निश्चयनय से निजशुद्धा- अधःकरण, अपूर्वकरण 401,409 त्मभावना अभिमुखरुप अनिवृत्तिकरणवाले करण से सविकल्प स्वसंवेदन लब्धि में दर्शनमोह का ज्ञान से आत्मा में योजता अभाव करने के लिये समर्थ परिणाम विशेष बल से आत्मो में योजता है। २."तदनंतरम विकल्प २."दर्शनमोहान्धकारः 2 2 स्वरूप प्राप्ते" प्रलीयते" शुद्धोपयोग उस (करणत्रय के) अनंतर दर्शनमोहान्धकार नष्ट करता पंचाध्यायी अविकल्प (निर्विकल्प) है। अध्याय 2 आत्मानुभूति प्राप्त होती है। श्लोक 462 सम्यक्त्व इस विषय में प्रवचनसार गाथा नं 33 में कहा है कि -