________________ - (18) व्रतधारी मुनि मोक्षमार्गस्थ नहीं है / इसलिये शुद्धात्मानुभूतिवाला अव्रती गृहस्थ शुद्धात्मानुभूति से रहित सर्व प्रकार के महाव्रतों का पालन करनेवाले मुनि से श्रेष्ठ है।" इससे सिद्ध होता है कि शुद्धात्मानुभूति से ही मोक्षमार्ग शुरु होता है / जिस समय शुद्धात्मानुभव होता है उसी समय श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र में समीचीनता आती है। प्रवचनसार गाथा नं. 9 की तात्पर्यवृत्ति में श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं कि - " व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदान पूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठेनेन परिणतः शुभो ज्ञातव्य, इति / . अर्थ - व्यवहार से गृहस्थ की अपेक्षा से यथासंभव, सराग सम्यक्त्वपूर्वक दानपूजादि शुभानुष्ठान से परिणत शुभ जानना चाहिये और तपोधन अपेक्षा से मूलगुणादि शुभानुष्ठान से परिणत शुभ जानना चाहिये / " याने दानपूजादि भाव, अणुव्रतपालन के भाव और मूलोत्तरगुणपालन के भाव ये . सब शुभभाव हैं, वह शुभोपयोग है। - जो शुद्धात्मानुभूति से रहित हैं और दानपूजादि, अणुव्रतकी क्रिया और मूलोत्तरगुण पालन की क्रिया करते हैं वे शुद्धोपयोग से रहित होने से मोक्षमार्गस्थ नहीं हैं। 8) शंका - प्रवचनसार गाथा नं. 9 की तात्पर्यवृत्ति में - श्री। जयसेनाचार्यजी लिखते हैं कि - 1) मिथ्यात्वसासादानमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः / 2) तदनंतरमसंयत सम्यग्दृष्टि देशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तथा - " बृहद्रव्यसंग्रह गाथा 34 की टीका - " ततोऽप्यसंयत सम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते" तो इसका अर्थ क्या है ?