________________ गोम्मटसार जीवकांड कर्णाट्वृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका टीका गाथा नं. 1, पान नं. 30, भाग 1, में कहा है कि - "न ह्यात्मतत्त्वोपलब्धिमन्तरेण सम्यक्त्वसिद्धिः" . अर्थ-आत्मोपलब्धि के विना सम्यक्त्व की सिद्धि नहीं होती है। . 2) शंका- प्रथमोपशम सम्यक्त्ववाले अथवा क्षयोपशम सम्यक्त्व वाले चतुर्थ गुणस्थानवर्ती (अविरतसम्यक्त्वी) को शुद्धोपयोग (शुद्धात्मानुभव निर्विकल्प अनुभव) होता है क्या ? उत्तर - समयसार गाथा नं. 320 दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव / जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव // 320 // (आ.ख्या.) उसकी टीका तात्पर्यवृत्ति में श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं कि - "तस्य त्रयस्य मध्ये भव्यत्वलक्षणपरिणामिकस्य तु यथासंभवं सम्यक्त्वादिजीवगुणघातकं देशघातिसर्वघातिसंज्ञं मोहादिकर्मसामान्यं पर्यायार्थिकनयेन प्रच्छादकं भवति इति विज्ञेयं / तत्र च यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तेयंक्तिर्भवति तदायं जीवः सहजशुद्ध पारिणामिकभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्य सम्यक् श्रद्धान ज्ञानानुचरणपर्यायेण परिणमति / " अर्थ - उन तीनों में (याने जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व इन तीनों में) भव्यत्व लक्षणवाला पारिणामिकभाव का यथासंभव पर्यायार्थिकनय से सम्यक्त्वादि जीव के गुणों का घात करनेवाला देशघाति सर्वघाति संज्ञावाला मोहादि कर्मसामान्य प्रच्छादक (आवरण करनेवाला ) है, ऐसा जानना चाहिये ; और वहाँ जब कालादिलब्धि के वंश से भव्यत्वशक्ति की व्यक्ति (प्रकट) होती है, तब यह सहजशुद्ध पारिणामिकभावलक्षण निजपरमात्मद्रव्य का सम्यक्श्रद्धान- ज्ञानानुचरण पर्याय से परिणमता है /