Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 18
________________ के उदय में होनेवाले भूमि रेखादि समान रागादि का अभाव होने से पंचमगुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दृष्टि (शुद्धात्मानुभूतिवाले) होते हैं। "इति पूर्वमेव भणितमास्ते।" . . . . ऐसा पहले भी कह दिया है। "अत्र तु ग्रंथे पंचमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थानवर्तिनां वीतराग सम्यग्दृष्टीनां मुख्यवृत्त्या ग्रहणं / सरागसम्यग्दृष्टीनां गौणवृत्त्या इति व्याख्यानं / सम्यग्दृष्टिव्याख्यानकाले सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यम् / " . ___ इस ग्रंथ में पंचमगुणस्थान से उपर के गुणस्थानवीयों को, वीतराग सम्यग्दृष्टियों को मुख्यवृत्ति से और सरागसम्यग्दृष्टियों को (चतुर्थगुणस्थान वालों को) जघन्य से (अल्पस्थिरतावाली) शुद्धात्मानुभूति होने से ग्रहण करना। इस तरह सम्यग्दृष्टि के व्याख्यानकाल में सर्वत्र जानना योग्य है / इस प्रकार शुद्धात्मानुभूति चतुर्थगुणस्थानवाले जीव को होती है यह सिद्ध होता है। . . . . टीप - 1 श्री अमृतचन्द्राचार्य समयसार गाथा नं 13 की टीका में लिखते हैं - " या तु आत्मानुभूतिः सा आत्मख्यातिरेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेव इति समस्तमेव निरवचम् / " अर्थ - जो यह आत्मानुभूति है वह आत्मख्याति ही है, और वही आत्मख्याति सम्यग्दर्शन ही है / ऐसा समस्त कथन निर्दोष ही है। समयसारमें और भी कहा है - आत्मख्याति गाथा नं 19 ... “कम्मे णोकम्मम्हि य......" इस गाथाकी जयसेनाचार्यजी कृत टीका में - . "अपडिवुद्धो अप्रतिबुद्ध : स्वसंवित्तिशून्यः बहिरात्मा हवदि भवति।" अर्थ - अप्रतिबुद्ध, बहिरात्मा, स्वसंवित्तिशून्य ये एकार्थवाची हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव बहिरात्मा नहीं कहा जाता है / इसलिए वह स्वसंवित्तिसहित ही है. / इससे सिद्ध होता है कि चतुर्थ गुणस्थानवी जीव शुद्धात्मानुभूति से सहित ही है / इसलिए शुद्धोपयोग से ही चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त होता है; शभोपयोग शुभराग होने से शुभोपयोग से चतुर्थ गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती है।

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