Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 16
________________ (2) "परमाणुमात्रमपि रागादीनां तु. विद्यते यस्य हृदये हु स्फुटं" परमाणुमात्र भी मिथ्यात्व अनंतानुबंधी जनित राग का सद्भाव जिसके .. हृदय में स्पष्ट है (अथवा ध्रुव-स्वभाव में यदि परमाणुमात्र भी राग माना जाय तो) ___ण वि सो जाणदि अप्पांणयं तु सव्वागमधरोवि - "सतु परमात्मतत्त्वज्ञानाभावात् शुद्धबुद्धकस्वभावं परमात्मानं न जानाति, न अनुभवति।" वह परमात्मतत्त्वज्ञान से रहित होने से शुद्धबुद्ध एक स्वभावमय परमात्मा को जानता नहीं याने अनुभवन करता नहीं। शंका -“कथंभूतोऽपि ?" कैसा होते हुए भी वह अनुभवता नहीं ? . उत्तर - "सर्वागमधरोऽपि-सिद्धांतसिंधुपारगोऽपि / " सर्व आगम का पाठी होता हुआ भी वह निजशुद्धात्मा को जानता नहीं . अर्थात् अनुभवता नहीं। - अप्पाणमयाणतो अणप्ययं चावि सो अयाणंतो "स्वसंवेदनज्ञानबलेन सहजानंदैकस्वभावं शुद्धात्मानमजानन् तथैवाभावयंश्च शुद्धात्मनो भिन्नं रागादिरूपं अनात्मानं च अजानन्" __ स्वसंवेदनज्ञानबल से (स्वशुद्धात्मानुभूति से) सहजानंद एक स्वभावमय शुद्धात्मा को न जाननेवाला तथा उसी प्रकार न अनुभवनेवाला और शुद्धात्मा से (स्वस्वभाव से) भिन्न रागादिरूप अनात्मा को न जाननेवाला। कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो - . “स पुरुषो जीवाजीवस्वरूपं अजानन् सन् कथं भवति सम्यग्दृष्टिः ?" वह पुरुष जीवस्वभाव और अजीवस्वभाव को न जाननेवाला होने से कैसे सम्यग्दृष्टि हो सकता है ? ...... "न कथमपि इति।" .. वस्तुस्वरूपको न जाननेवाला किसी भी प्रकार से सम्यग्दृष्टि

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