Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav
Author(s): Veersagar, Lilavati Jain
Publisher: Lilavati Jain

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Page 24
________________ __“धर्म्य धर्मे स्वस्वरूपे भवं धर्य ध्यानम् / " .. धर्म्य याने अपने निजात्मा के स्वभावमय धर्म में होनेवाला वह धर्म्यध्यान है। "आहवा वत्थुसहावं धम्मो वत्थू पुणो व सो अप्या। झायंताणं कहियं धम्मज्झाणं मुणिंदेहिं // 373 // अर्थ - अथवा वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं ; और वह वस्तु याने अपना आत्मा है, उस अपने आत्मा के स्वभाव का जो ध्यान वह धर्मध्यान है। ऐसा मुनीन्द्रों के द्वारा कहा गया है।" . अविरत सम्यक्त्वी जीव भी धर्मध्यान का स्वामी है इसलिये अविरत सम्यक्त्वी जीव के द्वारा अपने निजस्वभाव का ध्यान होता है / अपने निज स्वभाव के ध्यान को ही स्वानुभूति (शुद्धोपयोग) कहते हैं। . 5) शंका - भावसंग्रहकी इन गाथाओं का क्या अर्थ है ? जं पुण वि णिरालंबं तं झाणं गयपमायगुण ठाणे। चत्तगेहस्स जायइ परियं जिणलिंगरुवस्स // 382 // जो भणइ कोइ एवं अस्थि गिहत्थाण णिच्चलं झाणं। . सुद्धं च णिरालंबं ण मुणइ सो आयमो जइणो // 382 // कहियाणि दिठिवाएपडुच्च गुणठाण जाणि झाणाणि / तम्हा स देसविरओ मुक्खं धम्मं ण ज्झाएई // 383 // (त्रिकलम्) उत्तर - इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए - जो मुख्य निरालंब (उत्कृष्ट धर्मध्यानस्वरूपी स्वानुभूतिमय) ध्यान है वह ध्यान गृहत्याग देशविरत ( पंचम गुणस्थानवाले) जीव को मुख्य निरालंब ध्यान (याने सप्तम गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट धर्मध्यान) नहीं होता / याने गौण धर्मध्यान होता है, क्योंकि मुख्य धर्मध्यान नहीं होता, किन्तु गौण (जघन्य) धर्मध्यान का अभाव

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