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नयामतम-२
[मु.]
[टबार्थ
महाभाष्य तत्त्वारथ भाष्य, संमति प्रमुखनी लेई साखि। श्रीगुरुवचन थकी पणि लही, नयपरमारथ कहुं गहगही॥१.११॥ (११)
(ढाल-२, राग आसाउरी, नमो रे नमो श्रीशेजा ए देशी) प्रस्तुत वस्तुतणो अंशग्राही, अनिराकृत प्रतिपक्ष रे। अध्यवसाय विशेष जे एहवो, ते नय कहीइं लक्ष रे॥२.१॥ (१२) प्रथम नयनुं लक्षण कहीइं छइं। जाणवा इच्छ्युं जे वस्तु = घटपटादिक तेहनो अंश जे सत्ताप्रमुख = एकादिक अवयव तेहनो ग्रहेंनारो एहवो, अनि जे अंश ग्रह्यो तेहनो विरुद्ध जे अंश = असत्ता प्रमुख तेहनो अनिषेधक एहवो जे अध्यवसायविशेष = श्रुतज्ञाननो पर्याय ते नय कहीइं। एह ते लक्षण जाणवू अनि नय ते लक्ष्य छइं। इहां अंशग्राही कहतें प्रमाणने विषइं लक्षण जातुं निवारिठ। जे माटे प्रमाण ते समग्रवस्तु ग्राहक छई। अनि बीजइं विशेषणिं दुर्नयने विषे लक्षण जातुं निवारिउं ॥२.१॥ श्रीजिनवाणीसुं रंग कीजई, जिम मिथ्यामति छीजई रे। रागद्वेषनो नास करीजइं, केवलज्ञान लहीजइं रे॥ श्री.॥२.२॥ आंचली। (१३) जे प्रतिपक्ष तणो प्रतिपेखी, तेहनि दरनय जाणो रे। इंम नय दुरनय जाणी पटंतर, जिनमत कीजे प्रमाणो रे॥ श्री.॥२.३॥ (१४) जे सत्तादि अंशग्राही अध्यवसाय विशेष, असत्तादि विरुद्ध अंशनो निषेधक होइं तेह दुर्नय जाणवो। एहनिं नयाभास जाणवो। जिम घट छ ज इत्यादिक निर्धार वाक्य। इंणि प्रकारिं नय अनि दुर्नय तेहनो पटंतर जे भेद जाणीनिं जिनमत जे अनेकांतवाद ते अंगीकार करवो॥२.२,३॥ नय प्रापक साधक निरवरतक, निरभासक इति भाष रे। उपलंभक व्यंजक एक अरथा, इति तत्त्वारथ भाष्य रे॥ श्री.॥२.४॥ (१५) पामीइं ते विवेख्यो अर्थ जेणिं ते नय १, पमाडे विवक्षित अर्थ तें प्रापक २, साधइ विवक्षित वस्तुनें ते साधक ३, अतिसयें विवक्षित अर्थनिं जे वर्तावई = समजावें ते निरवरतक ४, अतिसयें विवक्षित वस्तुनि कहें ते निरभासक ५, एहवा शब्द विवक्षित पदार्थनिं ज्ञान विषं करें ते उपलंभक ६, विवक्षित अर्थनिं प्रगट करे ते व्यंजक ७, ए सर्व शब्द भिन्न छइ पणि अर्थ एक जाणवो। घटकलशकुंभादिक शब्द जुदा छे पण अर्थ एक छे तेम। एहवं तत्त्वार्थभाष्यने विषे कहिउं छइं॥२.४॥ द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक इति, मूल भेद तस दोय रे। द्रव्य ज अरथ विषय छइं जेहनि, ते द्रव्यार्थिक होय रे॥ श्री.॥२.५॥ (१६)
[टबार्थ
[मु.]
[टबार्थ
१. [टबार्थ] (श्री जिनवाणीने विर्षे रंग राच्या माच्या रहीए। जेथी करीने मिथ्यात्व दूर थाय अने एम करतां रागद्वेषनो पण नाश थाय, अने केवलज्ञानने पामे।। मु.) २. नयनो आभास पण शुद्ध नय नही मु. ३. नयाः प्रापकाः कारकाः साधका निर्वतका निर्भासका उपलम्भका व्यञ्जका इत्यनर्थान्तरम्। (तत्त्वार्थभाष्य १.३५)