Book Title: Nayamrutam Part 02
Author(s):
Publisher: Shubhabhilasha Trust
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गुजराती पद्यकृति
७७
इम व्यवहार पिण जांणवो। व्यवहार पिण नैगम समान छै। ते माटे भिन्न अवतारस्युं नही।
हवै संग्रहनो दृष्टांत कहेइ छ । सङ्गृह्णाति क्रोडीकरोति सामान्यरूपतया सर्वं वस्तु स सङ्ग्रहः । जिवारे संपूर्ण कंठ पर्यंत धांने करी भह्यो होए तिवारे ज तेहने प्रस्थक कहे छइ । संग्रह सामान्य धर्मनो ग्राहक छे। अन्न सामान्य धर्म एहि ज जांणवो। धान्यनुं जे मांन तेहनी मेयता कहिता प्रमाणता तेहनें भजे तिंवारें प्रस्थक कहिइ। पहिला बै नय नैगम अनइ व्यवहार तत्कारणिकभूत काष्टनें पिण प्रस्थक कहिता ते माटे अशुद्ध कह्या संग्रहनय एथी सूध जाणवो । प्रस्थक नीपना पछी पोता पोताने कार्य जे धांन्य मांनता रूपनें भजे तिवारें ज प्रस्थक कहि ।
हवइ ऋजूसूत्रनय कहियं छइ। धांन मापवानो हेतुभूत जे मापलो तेहने प्रस्थक कहइ तथा तेणे माप्युं जे धांननो ढिगलो ते तेहने पण प्रस्थक कहि । ऋजुसुत्रनय वर्तमान समय ग्राही हैं। संग्रहथी ए शुध छैं ते तिण कालइ ग्राहि छै। माटे अशुध जांणवो।
हवे शब्दादिक तीन नयनो एकठो ज दृष्टांत कहइ हैं। ए तीन नय शब्दनय छे। शब्द प्रधान मानें छइ पिण अर्थ प्रधान मांनता नथी। जिहां शब्दनी व्यवस्था छइ तेहने ज अर्थ कहे ते शब्द व्यवस्था तो प्रस्थक ज्ञानना उपजोगवंत पुरुषनें विषें रही छै। ते माटें पुरुषने प्रस्थक कहि । जेहवा जेहवा उपजोगने विषे जे ते प्राणी वर्ते छइ तिवारे ते ते उपजोगवंत कहिइ छै। जिम रागोपयोगने विषें वर्ते छइ तेहनइ रागी कहिये, विरागोपयोगने विषें वर्ते छें तेहने विषें विरागी कहिइ। तिम इहां पिण प्रस्थकनो उपजोगवंतनें प्रस्थक कहि ।
तथा प्रस्थक शब्दइं प्रस्थक निश्चयात्मक ज्ञान कहियें । ज्ञांननों उपजोग छैं ते तो चेतन धर्म छ । ते किम जडात्मक काष्ट भाजनने विषें हुई? तथा प्रस्थकः निश्चयात्मकमानमुच्यते निश्चयश्च ज्ञानं तत्कथं जडात्मनि काष्टभाजने वृत्तिमति भविष्यति ? चेतनाचेतनयोः सामान्याधिकरण्याभावात् तस्मात्प्रस्थकोपयुक्त एव प्रस्थक इति हेमचन्द्राचार्याः । ते माटें ए तीन नय करी प्रस्थक उपजोगी पुरुषनें ज प्रस्थक कहइ, पिण तदनुपजोगी काष्टभाजनने प्रस्थक न कहैं। चेतन धर्म उपयोग छै । इति प्रस्थक दृष्टांत ।
हवइं वसति दृष्टांतइं सात नय अवतारई छ । कोइ पाडलिपुरे वास्तव्य जिनने कोइक विदेशी नरें पूछयुं—तुं किहां वसें छइ? तिवारें तेणे कहुंऊ—लोक मध्यें वस्तुं छु। ए अशुद्ध नैगम इत्यादिक पूर्वि वसति दृष्टांतें भाव्यो छैं। तिम ज नैगम नय लेवो ।
हवे व्यवहार कहेंइ छें। व्यवहारनो दृष्टांत नैगमपणें जांणवो कांइ फेर नथी ते माटे त्रीजा ठामथी बीजे ट्ठामें भण्यो छैं। अत्र कोइक शिष्य पूछेंस्यै— जे छेहलो नैगमनो भेद लौकि[क] नये नहि घटैं। तें किम ? जो ग्रामांतरे न गयो हुइ तो कहियै जे घरे वस्यें हैं एहवो चरम नैगम छइ । अने व्यवहार तो ग्रामांतरें गयो छै तोहइ पिण इम कहिवाइ छइ—— देवदत्त पाडलिपुर नगरे ज वसे छै। तो ए नय नैंगम समान किम कहियें? तेहने इम कहियें— अहो! भव्यजन! व्यवहारनयें पिण एहवो ज कांइ नथी नियम नथिं जे ग्रामांतरें गयो छइ तोहि पिण वसतो ज कहियई लोक इमपि किवारेंकि बोले छें। देवदत्त एतला दिन पाडलिपुरें वसतों पिण हवणां ग्रामांतरें गयो छैं। एहवो व[च]न तो नैगम पिण कहावे छइ ते माटे नैगम सम जांणवो इति व्यवहारः ।

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