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गुजराती कृति
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तिवारै एवंभूतनय बोल्यो— शुक्लध्यांन रूपातीत परिणाम क्षपकश्रेणि कर्मक्षयना कारण ते साधनधर्म। जे जीवनो मूल स्वभाव ते वस्तुधर्म । जे मोक्षरूपकार्य नीपना सिद्धमा रहै ते धर्म कहै छै। सात नय धर्म कह्यो।
हिवै सात नय सिद्ध कहै छै । नैगमनय — सर्व जीव सिद्ध छै । जे आठ रुचक प्रदेश सर्व जीवना सिद्ध समान निर्मल छै तिणें सर्व जीव सिद्ध छै ।
इणें जे पर्याय नय करी कर्म सहित अवस्था ते
तिवारै संग्रहनय बोल्यो— सर्व जीवनी सत्ता सिद्ध समांन टाली अने द्रव्यार्थिक नयनी अवस्था अंगीकार व (क) रवी ।
तिवारै विवहारनय बोल्यो - जे विद्यालब्धिप्रमुख गुणें करी सिद्ध थयो । ते सिद्धपणें बाह्यतप प्रमुख गुण अंगीकार कीधा।
तिवारै ऋजुसूत्रनय बोल्यो— जिणें सिद्ध सत्ता आपणें आत्मानी सत्ता उलखी छै अनें ध्यांननो उपयोग तेहि ज वरतै छै ते समय जे जीव सिद्ध । इणें समकिती जीव सिद्ध समान छै इम कह्यो ।
तिवारै शब्दनय बोल्यो–जे शुद्ध शुक्लध्यांन परिणाम नामादि निक्षेपें ते सिद्ध।
समभिरूढनय बोल्यो—केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र ए गुणवंत ते सिद्ध । इणे तेरमें गुणठांणें चउदमें गुणठांणे केवली सिद्ध कह्या।
एवंभूतनय—सकल कर्म खपाय लोकनें अंतें विराजमान अष्टगुणसंपन्न ते सिद्ध जांणवा। ए सिद्ध पदमें नय
कह्या।
इम सात नयमांहि जे कोइ उथापै ते वचन अप्रमांण छै।
हिवै प्रमांण नो विचार कहै छै । ते प्रमाणना बे भेद छै—एक प्रत्यक्ष प्रमाण (१) बीजो परोक्ष प्रमाण (२) । तिहां प्रत्यक्ष प्रमाण कहै छै। जे जीवनें आपणा उपयोगस्युं जे द्रव्यनें जांणें ते प्रत्यक्ष प्रमाण कहीजै। तिहां केवली छए द्रव्य प्रत्यक्ष प्रमाण जांणे, देखै छै । ते केवलज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान छै । मनः पर्यायज्ञान मनोवर्गणा प्रत्यक्ष जांणे छै। अवधिज्ञान पुद्गल द्रव्यने प्रत्यक्ष जांणें छै । तिणें ए दोय ज्ञान देश प्रत्यक्ष छै। बीजो छद्मस्थ ज्ञान सर्व परोक्ष प्रमांण छै। ते परोक्ष प्रमांण कहै छै। जे मतिज्ञान, श्रुतज्ञाननो उपयोग परोक्ष प्रमांण छै। जे शास्त्रबलस्युं जांणे ते परोक्ष कहीजै। ते परोक्षना त्रिण भेद छै—अनुमान प्रमाण (१), आगमप्रमाण (२), उपमान प्रमाण (३)। अनुमान कहितां कोइक सहि नांण देखी जे ज्ञान थायें जिम धुंओ देखी अग्निनो सहिनांण अनुमान थाये। आगम कहतां शास्त्रनी साखथी जे वात जांणीयै। जिम आपै देवलोक, नरक, निगोदनो विचार जांणीयै छै ते आगम प्रमाणसुं । अनें किणही वस्तुनो दृष्टांत देनें ओलखायें ते उपमान प्रमाण जांणवो। एतलै प्रमांण कह्यो ।
॥इति सातनयअधिकार समाप्त ॥