Book Title: Nayamrutam Part 02
Author(s): 
Publisher: Shubhabhilasha Trust

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Page 128
________________ गुजरात कृति १०५ तत्त्व ऊपना मूलकारण एहीज रीतें पुन्य-पापरो आश्रव, पुन्य-पापरो ही संवर, पुन्य-पापरी ही निर्जरा, पुन्य-पापरो ही बंध, अनें मोख पिण पुन्य-पापनो ही ज छें। [५] हिवे पुन्य तत्त्व ऊपरें सात नय लगाडे छें। नव प्रकार पुन्य कयो । तेहमां पहिलो अण पुन्यें कह्यो किण ही साधु तथा रांक पुरबलआंण जाचना करी तरे नेगम नयनें मते तो दान देवा उठ्यो । संग्रहनयनें मते अनादिक हाथे लीधो। व्यवहारनयने मतें तेहनें पात्रे पड्यौ । अर ऋजुनयनें मते अंतरक्रिया करे शुभ लेस्या कारणभाव सातावेदनीयादिक करमना पुद्गलवर्गणानो संचय थयो । शब्दनयनें मते कर्मनो विपाक स्थितिपाक उदै आयौ। समभिरुढनयनें मतें रस, वीर्य, पदारथ भोगव्यो । एवंभूतनयनें मते आत्मा में सुख जीवनो गुणनो भोगवतो हुवो। हिवें पापतत्त्व। पहिलो प्राणातिपात पाप कह्यौ अठारै में। तेहमां किणही पारधीनें मृगना मांसनी ईछा हुई। ते नैगमने। संग्रहनय शस्त्र लेई वनमें चाल्यौ । व्यवहारे क्रिया करी मृग मार्यौ । ऋजनें मतें अशुभलेश्या कारण भाव असाता वेदनीयादिकं बयासी प्रकृति उपार्जी। शब्दनयनें मतें कर्मस्थितिपाक ऊदे आव्यौ ते कार्यभाव। समभिरूढनयनें मते पापभोगवण रूप प्रवृत्ति थई तेवाइ ज पदारथ भोग। एवंभूत नयनें मते आतमारे दुखपणानो वेदवा थयो, जीवनो दुख गुण तेहीज भोगव्यौ । [६] हिवें आश्रवतत्त्व उपर सात नय। कर्मनो श्रववो ते आश्रव। नैगमनयने मते तो लेश्यानो उदय हुवो। लेश्या योग नै उदै कही। संग्रहनयनें मतें कर्म आवरणरो बारणो खुल्यो । व्यवहारनयनें मते योगरी क्रिया कर कर्म वर्गणा ग्रही। ऋजुनें मतें जीवना परदेसां पुद्गल ग्रास्या गीलीया पिण ए क्रिया जीवना भावनिमत्त सहाइ विना हुवे नही । शब्दनयनें मते मिथ्यात्वादिक जीवना भाव। अनें समभिरूढनें मतें ते भावै जीवनी प्रकृति। अने एवंभूत नयनें मते ते भावै जीवनो मगन हुवणौ। [७] ५ संवरतत्त्व। नैगमनयने मतें करम हलका थयां जथाप्रवृतिना परणाम थया । संग्रहनयनें मतें गुरुपास जाय पंच महाव्रत तथा बारें व्रत आदर्या । व्यवहारनयनें मतें समिति - गुप्ति में प्रवृत्तिण थयो। ऋजुने मते आवता कर्म ज्ञानावरणादि रुकांणा। शब्दनयनें मते चउदें प्रकृतिनो उपशम थयो, निज शक्ति प्रगटी । समभिरूढनें मतें आत्मानें थिरता प्रकटी, चंचलता मिटी । एवंभूतनै मतै आनंद सुख प्रगट्यौ जो संवर पदपाय आनंदे। ए समयसार में साख अने ठा[णां]गसूत्रे' दस सुख कह्या तिहां नवमो सुख संवरी साधनो कह्यौ सर्वार्थसिद्धना देवांथी अनंतगुणो इधको' कह्यौ। [८] हिवें निर्जरातत्त्व। नैगमनयने मतें पूर्वे संचित कर्म जीर्ण थया । संग्रहनयने मतें सूत्रे वेदना निर्जरा कही ते करम वेदीया। व्यवहारनयनें मतें योगक्रिया कर कर्मारी परिसाटणा करी कर्म झाटकर दूर किया। ऋजुने मते देशथी कर्म तोडी जीवप्रदेश देश थकी ऊजलो हुवो। शब्दनयनें मते बारें प्रकार जीवना भाव ऊपना। समभिरूढनें मतें बारें प्रकार तप मांयलो अणसण अर अब्भिंतर तपमें सुभ ध्यान तेहनो ध्यायवो सेणिबंध थयो। एवंभूतनयनें म इच्छारोध हुवो आतम सत्ता एक थया । १. दसविहे सोक्खे पण्णत्ते। तं जहा— आरोग्गदीहमाउं, अड्ढेज्जं कामभोगसंसत्तं। अत्थि सुहभोगणिक्खम्ममेव तत्तो अणाबाहे। (स्थानांग १०-८३) २. =अधिक

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