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गुजराती पद्यकृति
॥अथ नैगमस्वरूपकथनम्॥
(ढाल ५, राग सारिंग मल्हार, ईडर आंबा आंबली रे ए देसी) [मु.] हवें नैगमादिक नयतणां रे, लक्षण विवरी कहेस।
विण लक्षण किम जाणीइं रे, वस्तु स्वरूप विसेस॥ चतुर नर निसुणो श्री जिनवाणि, ए तो सविनय रयणनी खाणि॥ चतुर.॥५.१॥(४८)
(आंचली) [टबार्थ| हवें नैगमादिक नयमां प्रत्येकिं लक्षण कहीस। लक्षण ते असाधारण धर्म। ते लक्षण कह्या विना किम
जणाई वस्तुनुं विशेष स्वरूप?॥४८॥ निगम नाम संकल्पको रे, तद विषई अभिप्राय।
ते नैगम नय भाखिइं रे, क्रम विसुद्ध बहुधाय॥ चतुर.॥५.२॥(४९) [टबार्थ| निगम कहीइं संकल्प कारणे कार्योपचाररूप ते ग्राही जे अभिप्राय ते नैगम नय कहीइं। {अने}
अनुक्रमिं आगलो आगलो विसुद्ध जाणवो॥५.२॥४९॥ [मु.] सामान्यनिं विशेषनि रे, मानइं युगति तस एह।
नित्य अखंड अनेकगं रे, होइं सामान्यह तेह॥ चतुर.॥५.३॥(५०) [टबार्थ| एहनुं मति विवरई छई। सामान्य पदार्थ अनि विशेष {बेहु} पदार्थ मानें। ए बेऊनि ए नय तेहनी
युगति आगलि कहीइं छइं तेह। तिहां प्रथम सामान्यनु लक्षण कहें छे। ए दृष्टांतिं देखाडे छ। त्वशब्दें वाय(च्य) जिम अनइंक घट तेहनें विर्षे घटपणुं ते सामान्य कहीइं। ते घट नासिं पणि नास न पामें ते माटें नित्य। अनें अनेक घटनें वि घटपणुं एक ज छे। अने ते घटपणुं सर्व घटनें विषइं व्याप्त छई। इति लक्षणयोजना। नित्य एक अनि अनेक व्यापी एहवें सामान्य होइं॥५.३॥(५०) एकाकार प्रत्यय तणो रे, हेतु द्रव्यादिक वृत्ति।
नहीं तो भिन्न विलक्षणिं रे, किम सत् इति अनुवृत्ति?॥ चतुर.॥५.४॥(५१) [टबार्थ] सरखी बुद्धिनुं कारण द्रव्य गुण कर्मने विषई वरतें ते पूर्वोक्त सामान्य जाणवू। माहोमाहिं भिन्न लक्षण
अनि स्वरूपिं पणि भिन्न एहवा जे द्रव्य गुण में कर्म तेहनें विषई सत् एहवी एकाकार बुद्धि प्रवर्ते छे तेहर्नु कारण ते सामान्य ते द्रव्यादिकथी भिन्न छइं इति भावः। किम सत् एहवी एकाकार बुद्धि थाइं छे? जो सत्ता सामान्य द्रव्यादिकथी भिन्न न होइं तो भिन्न अनि विलक्षण जे द्रव्यादिक तेहनें विर्षे एकाकार बुद्धि तोहि ज थाइं जो तिहां कोईक सामान्य ते पदार्थ छइं इति भावः॥५.४॥(५१)
१. ए प्रमाणे सप्तनयना दृष्टांत कह्यां। हवें नैगम स्वरूप कहे छ। अधिक मु. २. नहि माटे लक्षण बतावे छे अधिक मु.