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गुजराती पद्यकृति
[मू.]
अह भावनय बोलई क्षणवादी, भाव भिन्न नहीं द्रव्य रे ।
प्रतिक्षण भाव उपजें विणसई, हेतु विना जगि भव्य रे ॥ सुणो० ॥६.१०॥ (७३)
[टबार्थ] हवें पर्यायनय कहें छें। ते क्षणिक वस्तुनिं मानें। पर्यायथी अन्य कोई द्रव्य छें नही। प्रतिं समयें पर्याय ज उपजें विणसें छइं कारण विना जगनें विषे हे ! भव्य ! कार्य ते कारण निरपेक्ष ज उपजें छें। अपेक्षा तो छती वस्तुनी होइं अनिं मृत्पिंडादिक कारण वेलाई घटादिक कार्य छई नही। जो अविद्यमाननी अपेक्षा करीइं तो शशकशृंगनी पणि करी जोई । ते माटें कार्य ते कारण विना ज छई इति भावः ॥ ६.१०॥ (७३)
[मू.]
[टबार्थ]
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प्रति समयइं अपरापररूपिं, थावाथी सवि वस्तु रे ।
कार्य रूप छड़ नहीं को कारण, इंम च्यारदं वदनं व्यस्त रे ॥ सुणो० ॥६.११॥ (७४)
समय समय दीठ नवनवइं परिणामिं परिणमवा माटें सर्व वस्तु जे मृत्पिंडादिक ते कार्य रूप ज छें। पणि अवस्थित रूप कारण कोई छई नहीं। ए पर्यायनयनुं मत छे। इंम च्यारे नय बोलें जूदा जूदा॥६.११॥(७४)
तव सवि नयमय जिणमय बोलइं, मूंको निज मत कूप रे
शबद अरथ बुद्धि परिणति भाविं, सवि चउ पज्जय रूप रे॥ सुणो० ॥६.१२॥ (७५)
[मू.]
[टबार्थ] हवें सिद्धांतवादी कहई छ । तिवारिं सर्व नय संमत श्रीजिनमत कहें छई। हे! नयवादीओ! मूंकी दीओ मतरूप कूपनिं। शब्द जे नाम, अर्थ जे आकार, बुद्धि जे तेहनुं ग्रहेंवु ए परिणामपण सर्व वस्तु च्यारे पर्यायमय छें। पणि नयवादीइं एकेको पर्याय मान्यो ते खोटुं छे ।
नामादिक चतुष्टयात्मक ज वस्तुइं घटादिक शब्दनी तेहना अर्थबोधकपणा माटें परिणति दीठी। अर्थ जे पृथुबुध्नोदरादिक आकार तेहना पणि नामादिक चतुष्टयात्मकपणें ज परिणाम दीसें छें। बुद्धिनो पणि तदाकारग्रहणरूपपणा माटें परिणामनादिक चतुष्टयात्मकनें विषें ज दीठो, पणि नामादिक इक पर्यायात्मकनें विषें शब्दादिक परिणति न थाई। अनिं अविशिष्टपणें घटादिक वस्तु उच्चरई नामादिक च्यारें पणि भासे छें। ते माटें सर्वे वस्तु च्यार पर्यायरूप छें इति भावः॥६.१२॥(७५)
एह विलक्षण निज आश्रयनिं, भेद अभेदना कार रे ।
प्रत्येकिं द्रव्यादि विकल्पिं, आश्रय भेद अपार रे ॥ सुणो०॥६.१३॥(७६)
[मू.]
[टबार्थ] ईहां कोई कहेंसें जो सर्व वस्तु चतुःपर्यायात्मक छें तो नामादिकनें स्युं सर्वथा भेद नथी? ते उपरि कहें छइं। एह नामादिक धर्म माहोमाहिं भिन्न स्वरूप थका पोतानो आश्रय जे घटादिक धर्म तेहनि पणि किंचित् भेदकारी किंचित् अभेदकारी । ते किम ? नामादिक इकेक पर्यायनें विषं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनी वि[क]ल्पनाई द्रव्यना भेद अनंत थाई।
कोईकिं इंद्र एहवुं पद उच्चरें थकें अन्यनिं एहवो विकल्प उपजें जे एणिं नामेंद्र विवेक्ष्यो, अथवा स्थापनेंद्र वा, द्रव्येंद्र वा, भावेंद्र ? हवें नामेंद्र पणि द्रव्यथी गोपालदारक, किं क्षत्रियदारक, कें