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नयामृतम्-२
[मु.]
ब्राह्मणदारक के शूद्रदारक? इत्यादि। तथा क्षेत्रथी पणि नाम इंद्र स्युं भरतक्षेत्रनो किं वा ऐरवतक्षेत्रनो, किं वा विदेहक्षेत्रनों? इत्यादि। कालथी पणि स्युं अतीतकालनो किं वा वर्तमानकालनो किं वा अनागतकालनो के अनंतसमयभावी, के असंख्यातसमयभावी, के संख्यातसमयभावी? इत्यादि। भावथी पणि सुं कृष्णवर्ण, किं वा नीलवर्ण, किं वा रक्तवर्ण, किं वा पीतवर्ण, किं वा शुक्लवर्ण? किं वा दीर्घ किं वा ह्रस्व? इत्यादि। इंम एक पणि नामेंद्रनो आश्रयभूत जे अर्थ तेहनिं द्रव्यादिक भेदिं अनंत भेद भासें छई। तथा स्थापनादिक आश्रयनिं पणि उक्त रीतिं प्रत्येकिं अनंतभेदपणुं अनुसरवू। ए रीति नामादिक पर्याय भेदकारी जाणवा इति भावः॥६.१३॥(७६) जब एक वस्तुई चउनी विवक्ष्या, होइं अभेदक त्यारि रे। इंम नय समुदयथी सवि लहीइं, शास्त्र अरथ सुविचारिं रे॥ सुणो०॥६.१४॥(७७) हवे च्यारेंनि अभेदकपणे देखाडे छई। जिवारिं एक वस्तु घटादिकिं नामादिक च्यारेनी विवक्षा करीइं तिवारिं अभेदकारी होइं। इंणी रीति नय समुदाय थकी सर्व पामीइं शास्त्रनो अरथ भलें विचारें करी। हवई जिवारि च्यारे एक वस्तुइं प्रतीतीइं तिवारिं अभेदकारी। ते किम? जेम एक पण शक्रादिकने विषे इंद्र एहवो शब्द ते नाम, तेहनो आकार ते स्थापना, उत्तर उत्तर अवस्थानुं कारणपणुं ते द्रव्य, दिव्यरूपपणानी संपत्ति; वज्रधरणादिक परमऐश्वर्यसंपन्नता ते भाव। इंम च्यारइं पर्याय अभेदपणे भासइं इति भावः॥६.१४॥(७७)
॥इति निक्षेपस्वरूपम्॥
[टबार्थ
॥अथ संग्रहनयस्वरूपकथनम्॥ (ढाल-७, राग-केदारो गोडी, कपूर होइं अति ए देशी)
नैगमादिक अंगीकर्या रे, अरथ सकल विस्तार। सामान्यरूपिं संग्रहइं रे, ते संग्रहनय सार रे॥७.१॥(७८)
भविजन धारो गुरु उपदेश, एहथी नासई कुमति किलेस रे भवि।।आंचली॥ [टबार्थ नैगम प्रमुख नये मांन्या जे अरथ घटादिक सकल विस्तारिं व्यस्तपणइं इति भावः। तेहनिं घटत्वादिक
जातिरूपिं एकपणइं संग्रहइं ते संग्रहनय कहीइं। नैगमादिकं व्यक्तिं भिन्न अर्थ मान्या तेहनिं जाति एकपणे संग्रहइं ते संग्रहनय इति भावः॥७.१॥(७८) केवल सत्ता मात्रनि रे, अंगीकारई नय एह।
सकल विशेष सत्ता रूपिं रे, अंतरलीना तेह रें॥भवि०॥७.२॥(७९) [टबार्थ] एक सत्ता सामान्यनि ज मानें संग्रहनय एह। द्रव्यादिक सर्व भिन्न भिन्न पदार्थ पणि सत्ता रूप
सामान्यने विषइं अंतरभूत थया छइं। द्रव्यादिक सर्व वस्तु सत् रूप ज छे इति भावः॥७.२॥(७९)