Book Title: Nandanvan Kalpataru 2009 10 SrNo 23
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 19
________________ Jain Education International कृत्वा शोकमलं विलप्य बहुशोऽश्रूणि प्रमृज्याऽन्ततो याते स्वस्त्वयि हन्त लोकनिवहं कुर्युर्महोऽष्टाह्निकम् । शिष्यास्त्वद्वचनामृतं विरहजं सञ्चित्य चित्ते विषं स्थास्यन्त्येव सहेव शासनधुरो वैधव्यदुःखं कथम् ? ॥५॥ को धर्माचरणं जनाननलसः शिक्षेत कारुण्यवान् ? आबाल्याद् व्रतपालनस्य च महादर्शीभवेदद्य कः ? । को वा शासन सूत्रधारणपटुः स्यात् स्वः प्रयाते त्वयि हा हा हन्त ! गुरो ! समस्तजगती जाता क्षणाद् दुःखिता ॥६॥ आक्रम्य प्रसभं दिगन्तममितैः शुभ्रैर्यशः सञ्चयैः स्वर्गङ्गेन्दु-सुरेन्द्रवारणसमा नद्यश्व तारा गजाः उद्योतैर्विहितास्तदेतदखिलां व्यस्तां व्यवस्थां जवाद् हा हा मर्त्यगणैर्नियन्तुमदयैः स्वर्नायितो नस्त्यजन् ॥७॥ पत्संवाहनलालसौ मम भुजावुद्वेल्लतः प्रत्यहं त्वत्सत्त्वभ्रमतोऽभिवन्दितुमहो नम्रं शिरो जायते । आदेशग्रहणाय हन्त सहसा पादौ पुरो गच्छतस्त्वत्त्यागान्महिमाप्रभं गुरुवर ! प्रेक्षस्व दीनं हतम् ॥८॥ १० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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